रायबरेली। विद्यार्थी जीवन में ज्यादातर छात्र जी-जान से कोशिश करते हैं कि वह अपने गुरुजी की ‘गुड बुक’ में किसी तरह जगह बना लें। गुरुजी उसे जानें, सब छात्रों के सामने उसके नाम से पुकारें, हर काम में याद करें- रजिस्टर लाने, कॉपी-किताबें उठाने, स्कूल की झंडा रस्सी खींचने तक। लेकिन मेरे साथ क्या होता था? इसका उल्टा!
पाँचवीं तक तो मैं अपने गांव बरी के प्राइमरी स्कूल में पढ़ा था। गांव के हिसाब से सम्मानित परिवार था हमारा। हमारे सारे गुरुजी… स्वर्गीय अवधेश सिंह, श्री बृजमोहन सिंह और स्वर्गीय देवनारायण सिंह- तीनों ही पड़ोस के गांव एकौनी के थे। इसलिए वे मुझे ही नहीं, मेरे बाबा, पापा, चाचा… सबको जानते थे। छठवीं में मुश्किल से दो महीने मेरुई के जूनियर हाई स्कूल में पढ़ा ही था कि पापा हमें लालगंज ले आए। अब हम अपना गांव बरी छोड़कर लालगंज के आचार्य नगर में रहने लगे थे।
यहां मेरा एडमिशन बैसवारा इंटर कॉलेज, लालगंज में करा दिया गया। यह वही स्कूल था, जहां पापा कभी शिक्षक रह चुके थे। पापा पहले ही दिन मेरे साथ विद्यालय गए और जूनियर विंग (6-8 कक्षा) के सभी शिक्षकों से मेरा इंट्रोडक्शन करवा दिया। साथ ही यह भी बता दिया कि लड़का पढ़ने में ठीक है लेकिन थोड़ा शरारती है। इसका ध्यान रखना।

‘ध्यान रखने’ का मतलब था- आगे की सीट में बैठना, जीरो बदमाशी, कोई मस्ती नहीं और नाम के अनुरूप बिल्कुल ‘विनय’ बनकर रहना। पापा ने कम कहा, शिक्षकों ने ज्यादा समझा। मेरा ध्यान ऐसा रखा गया जैसे हॉस्पिटल में ICU में मरीज का रखा जाता है – हर वक़्त निगरानी में! पढ़ने में ठीक थे, शिक्षक का पुत्र होने की इम्युनिटी थी, इसलिए मार तो खैर कभी नहीं पड़ी। लेकिन जरा भी इधर उधर करने की कोशिश करते तो डांट पड़नी तय थी।
इस ‘ध्यान’ का परिणाम यह हुआ कि छठवीं से आठवीं तक मैं पक्का ‘बाल ब्रह्मचारी मोड’ में रहा। न बंक, न बदमाशी। न गुटका, न गुल्ली-डंडा। सुबह 10 बजे बालों में तेल-कंघी करके घर से सीधे विद्यालय आना और शाम को चार बजे विद्यालय से सीधे घर जाना। घोड़े के मुंह पर ब्लिंकर्स लगाए जाते हैं ताकि वे इधर उधर न देखें, सीधे चलें। ऐसे ही हमारे सिर पर भी एक बड़ा सा ब्लिंकर्स बंधा हुआ था, हालांकि वह अदृश्य था। पूरे तीन वर्ष ब्लिंकर्स बांध कर के हमने पढ़ाई की।
लेकिन आठवीं पास होते ही लगा… अब तो हम ‘बड़े’ हो गए! नवीं में पहुंचे तो आत्मा में ‘सीनियरिटी’ का भूत सवार हो गया। अब साइंस, आर्ट, कॉमर्स – तीनों धारा अलग। बैसवारा इंटर कॉलेज का नाम था आसपास के क्षेत्रों में। विज्ञान वर्ग की पढ़ाई के लिए तो दूर-दूर तक प्रसिद्ध था। इसलिए आसपास के सभी क्षेत्रों के छात्र बैसवारा इंटर कॉलेज में एडमिशन ले रहे थे। कुछ तो उन्नाव, फतेहपुर जैसे आसपास के ज़िलों से भी आए थे जो किराए का मकान लेकर पढ़ाई करने वाले थे।
बैसवारा इंटर कॉलेज में जीव विज्ञान के हमारे शिक्षक थे श्री जयप्रकाश सिंह, गणित के स्वर्गीय डी.के. दीक्षित/श्री रणवीर सिंह और विज्ञान-2 के श्री फतेह बहादुर सिंह। आश्चर्य यह कि इस बार पापा विद्यालय में मेरा इंट्रोडक्शन कराने नहीं आये थे। इसलिए मुझे कोई शिक्षक नहीं पहचानता था – ऐसा मेरा मानना था। इसलिए मैंने सोचा कि बहुत हुआ बुकवॉर्म जैसा जीवन, बहुत हुआ ब्लिंकर्स बांध के सीधे-सीधे देखना। अब मैं आज़ाद होकर रहूँगा, खुली हवा में सांस लेना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।
01 जुलाई से क्लास चालू हुई तो मैंने पहले दिन से ही तय कर लिया था कि अब आगे नहीं बैठूंगा। यह सोचकर चौथी-पाँचवीं सीट का टिकट बुक कर लिया। पीछे बैठने से ऐसी फीलिंग आ रही थी जैसे सिनेमाघर में सबसे पीछे वाली सीट मिल गई हो। वहां से सब कुछ स्पष्ट दिखता था। सामने बोर्ड पर पढ़ाते शिक्षक, पीछे हर विषय और कमेंट्री करने वाले छात्र और बाएं तरफ की सबसे आगे वाली दो सीटों पर बैठी लड़कियों का समूह भी।
पीछे वाली सीट पर बैठकर मैंने जाना कि लालगंज में कुल दो सिनेमाघर हैं- जीवनदीप और लक्ष्मी। यह भी कि पांच रुपये वाली टिकट ब्लैक में दस रुपये की लो तो सबसे पीछे की कोने वाली बालकनी वाली सीट मिल जाती है। बैकबेंचर से यह भी ज्ञान प्राप्त हुआ कि एक सफ़ेद रंग की महंगी वाली बीड़ी आती है जिसमें पीछे फ़िल्टर लगा होता है। उसे फिल्मों के हीरो और अमीर लोग पीते हैं। किसी ने बताया कि बंगाल और बॉलीवुड में लड़कियां भी आगे की सीट पर बैठती हैं, बिल्कुल लड़कों की तरह।
एक प्रेमी टाइप लड़के ने यह भी बताया कि अगर चील की छाया वाली मिट्टी उठाकर किसी लड़की पर डाल दी जाए तो वह पक्का पट जाती है। दूसरे ने बताया कि टूटते हुए तारे को देखकर जिस लड़की का नाम ले लो, उससे शादी जरूर होती है।
बैकबेंचर एसोसिएशन से यह पता चला कि एक मास्टर जी हैं जो जिस रंग के कपड़े पहनते हैं, उसी रंग के जूते भी पहनते हैं। हीरो से दिखते हैं। लेकिन थोड़े देवदास से हैं। कई बार तो केमिस्ट्री लैब की स्पिरिट का भी सदुपयोग कर लेते हैं। बैकबेंचर एसोसिएशन से यह भी पता चला कि हमारे विद्यालय के प्रधानाचार्य, सर्दी के दिनों में विद्यालय के बाहर मूंगफली की ठेलिया लगाने वालों से 100 ग्राम मूंगफली देने को कहते हैं और जितनी देर में वह मूंगफली तौलता है, उसे अपनी बातों में उलझाकर 50 ग्राम मूंगफली फ्री में चट कर जाते हैं। इसीलिए उनका नाम ‘मोमफली’ पड़ गया है…..
इन दो-तीन दिनों में हमें बाहरी दुनिया और शिक्षकों के बारे में जितना ज्ञान मिल चुका था, उसका पौना भी पिछले तीन वर्ष में हम प्राप्त नहीं कर पाए थे। खूब आनंदमय जीवन चल रहा था। इन दो-तीन दिनों में हमने उतनी ही पढ़ाई की, जितनी आम बैकबेंचर करते हैं। बाकी समय में गरी वाली बर्फ और चूरन खाया, गोविंद हाल के बाहर वाले मैदान में कूदफांद किया और शिक्षकों की नकल उतारी। कुल मिलाकर स्कूल में हमारा हनीमून पीरियड चल रहा था।
चौथे या पांचवे दिन विज्ञान के शिक्षक श्री फतेह बहादुर सिंह पहली बार कक्षा में आए। वह सुदर्शन व्यक्तित्व के स्वामी थे- 6 फीट लंबे, गोरा रंग, क्लीन शेव, कपड़े बिल्कुल साफ और प्रेस किये हुए। आवाज बिल्कुल कड़क औऱ स्पष्ट। वह अटेंडेंस ले ही रहे थे कि पीछे से किसी लड़के ने चुगली की कि- “फत्ते बहादुर मास्साब तीन कश में पूरी सिगरेट पी जाते हैं। भड़-भड़ करने वाली एजदी मोटरसाइकिल से चलते हैं।”
वह हाजिरी लेते रहे और मैं आश्चर्य मिश्रित प्रशंसा भाव से उनको देखता रहा। हाजिरी लेने के बाद, उन्होंने रजिस्टर बंद किया, टेबल के एक कोने में रखा और बोले-
“बच्चों, नवीं कक्षा की पढ़ाई शुरू करने से पहले जरा आठवीं कक्षा का कुछ टेस्ट ले लिया जाए। तैयार हो?”
एक दो घुटी सी आवाजें आई – “जी मास्साब”
“तो ठीक है। बताओ, आर्किमिडीज का सिद्धांत क्या है?”
इससे पहले जो भी शिक्षक आये थे, हाजिरी भरकर और हल्की फुल्की बातें करके चले गए थे। एक दो क्लास हुई भी तो उन्होंने केवल पढ़ाया, टेस्ट तो नहीं लिया था। यहां तो पढ़ाई से पहले टेस्ट की बात होने लगी थी। यह कोई शुभ संकेत तो न था।
ज़्यादातर बच्चे इस टेस्ट रूपी बाउंसर के लिए तैयार न थे। इसलिए डक कर गए। बच्चों को अगर कोई सिद्धांत याद भी था तो वह यह कि – “चोरी छुपे खाने से आम का अचार ज्यादा स्वादिष्ट लगता है न कि गुड़ की भेली!”
मुझे भी लग रहा था कि आर्किमिडीज का नाम कभी सुना तो है। एक बार वह पानी में कूद गया था, फिर कुछ हुआ था, शायद यूरेका-ब्युरेका जैसा कुछ बोला था…मगर इसके बाद बाकी सब गोल। दिमाग में पानी के नाम पर बस यही याद आ रहा था कि- “अगर संवलिया बैल को नहर में ठीक से खरहरे से रगड़ा जाए, तो वो भी फेयर एंड लवली लगाए हुए पुरुष जैसा गोरा दिखने लगता है!”
खैर, क्लास की नाक बचाते हुए दो-तीन छात्रों ने हाथ उठा दिया। पीछे से आवाज आई- “यह वही पढ़ाकू लोग हैं जो छुट्टी में नानी के घर नहीं गए होंगे। इनके घर में बैल, भैंस भी नहीं होगी। आम, जामुन का पेड़ तो देखा भी नहीं होगा। वरना आम, अमावट के सीजन में आर्किमिडीज को भला कौन याद रखता है।” मैं भी यही सोच रहा था। लेकिन मास्साब कुछ और सोच रहे थे। उन्होंने हाथ उठाये हुए लड़कों से कुछ न पूछा। बल्कि पूरे क्लास को एक सरसरी नजर से ऐसे देखा जैसे किसी खास लड़के को तलाश रहे हों। फिर बोले –
“‘बाबा का लड़का कौन है? खड़ा हो जाए।”
(बताते चलूं कि पापा को उनके सभी साथी शिक्षक ‘बाबा’ कहकर बुलाते थे, शायद पूरे केश सफेद होने के कारण)
हालांकि मुझे अच्छे से पता था कि ‘बाबा’ मतलब मेरे पापा ही हैं। लेकिन मैंने ऐसे एक्टिंग की जैसे कि – “मुझे क्या पता यह बाबा, ओझा कौन हैं? ”
मास्साब को शायद एहसास हो चुका था कि उन्होंने गलत जगह पर पापा का बुलाने वाला नाम बोल दिया है। इसलिए भूल सुधार करते हुए बोले- “शम्भू दयाल सिंह मास्टर साहब का लड़का कौन है इस क्लास में?”
अब तो शक की कोई गुंजाइश ही नहीं बची थी। पक्का मेरे ही नाम का वारंट निकला था। इसलिए खड़े होना ही पड़ा।
मास्साब शायद मुझे अगली वाली सीटों पर तलाश रहे थे। इसलिए मुझे देखकर बोले – “अरे, तुम हो ‘बाबा’ के लड़के? पर पीछे क्यों बैठे हो? खैर… बताओ आर्किमिडीज का सिद्धांत क्या है?”
मैं लगभग डूबते हुए बोला –
“स… सर, कुछ पानी में डूबने से संबंधित है, लेकिन पूरी परिभाषा भूल गया हूँ।”
मुझे लगा कि अब मेरी क्लास लगने वाली है, ‘बाबा’ का नाम डूबने ही वाला है। लेकिन हुआ इसके विपरीत। मास्साब मुस्कराए और बड़े प्रेम से बोले- “ठीक है। आधा सही बताया है। लेकिन कल से आगे बैठना, अच्छे लड़के पीछे नहीं बैठते।” फिर खुद ही बताने लगे- “तुम्हारे पापा कल ‘रवींद्र बुक डिपो’ पर मिले थे। उन्होंने तुम्हारा ‘ध्यान’ रखने को कहा है।”
इसका मतलब यह हुआ कि पापा ने बैक डोर से मेरे ऊपर CCTV कैमरा फिट करा दिया था। बस, फिर क्या था। अगले दिन से मेरे हालात बदल गए, जज्बात बदल गए। मैं फिर से आगे की नीरस सीट पर बैठने लगा। अब हर गुरुजी का पहला सवाल मेरी तरफ सीधा मिसाइल बनकर आता और मुझे लगता कि मैं क्लास में ‘हॉट सीट’ पर बैठा हूँ और गुरुजी अमिताभ बच्चन बनकर KBC खेल रहे हैं।
जिस समय बाकी लड़के बाहर के मैदान में गोल मारते रहते, उस समय मैं गणित और विज्ञान के गोल-गोल सिद्धांतों से माथापच्ची करता रहता। जब बैकबेंचर क्लास बंक करके बाहर फुटबॉल खेलते थे, मैं मास्साब के सवालों की पेनल्टी किक झेलता रहता था।
कहाँ तो मैं सोच रहा था कि अब मैं भी बाकी लड़कों जैसा ‘फ्री बर्ड’ बनकर नीले गगन की सैर करूँगा। ‘मुन्नाभाई’ की तरह भौकाल रहेगा अपन का, सर्किट जैसा दोस्त बनाऊंगा और अपने लिए कोई डॉक्टर सुमन जैसी सुंदरी खोजूंगा। पर पापा ने वाया मास्साब, मेरे सारे ख्वाब धूल धूसरित कर दिए थे। मेरी सपनों की ‘सुमन’ खिलने से पहले ही मुरझा गई थी। मेरे दिल के अरमां जुलाई की पहली बारिश में बह गए थे।
और
मैं ‘मुन्नाभाई’ बनते-बनते, पुनः ‘विनय’ बन चुका था।
#पुनर्मूषको भव!
(विनय सिंह बैस ‘मुन्ना’)
तीन दिन के ‘मुन्नाभाई’

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