बैसवारा। जेठ का महीना (मई-जून) गांवों में सबसे तपती और चटक गर्मी का समय होता है। सूरज मानो आसमान से आग बरसाता रहता है। दोपहर में गांव की गलियां सूनी पड़ी रहती हैं। गर्म हवा के थपेड़े लोगों को बेदम लिए रहते हैं। दोपहर में धरती से उठती भाप, खेतों की सूखी दरारें और सूरज के कुछ चढ़ते ही चारों तरफ पसरा सन्नाटा। लू के थपेड़े ऐसे चलते कि लोग घर से बाहर निकलने से कतराते। बैल भी पेड़ की छांव में जीभ बाहर निकाले बैठे रहते। उनकी हौदी का पानी तक गुनगुना हो जाता। बड़े लोग कुएं के ठंडे पानी से नहाकर राहत पाते तो बच्चे नहर या तालाब में डुबकी लगाने पहुंच जाते।
गांव की बूढ़ी औरतें दोपहर में ओसारे में बैठकर पंखा झलते हुए पुराने किस्से सुनातीं रहती और युवा महिलाएं घर के आंगन में अचार, पापड़ और बड़े सुखाने में व्यस्त रहती। लेकिन पुरुषों को जेठ की तपती गर्मी में ही आषाढ़ की चिंता करनी पड़ती थी। जिन खेत की दरारों में जेठ ने प्यास बो दिया है, उनमें सृजन के बीज बोने की तैयारी करनी रहती थी।
इसलिए भाई बाबा (बाबा उनका पद था और भाई उनका सर्वविदित, सर्व प्रचलित उपनाम।) जेठ के दूसरे पाख में ही सबसे पुष्ट और सुंदर धान बड़े से टब में डालकर पानी भर दिया करते थे। रात भर फूल जाने के बाद सुबह उन्हें कई छोटे-छोटे कूरा (ढेर) में बांटकर दीवार के किनारे लगा दिए करते थे ताकि उनका पानी रिस जाए। फिर उन कूरों को बोरों से ढक दिया करते थे। बोरों पर बीच-बीच में पानी का छिड़काव भी करते रहते थे ताकि नमी और गर्मी दोनों बनी रहे। तीसरे दिन तक धान अंकुरित हो जाते थे।

उधर इंजन (ट्यूबबेल) के पास वाली डेबरी (छोटे खेत) में इंजन से पानी भर दिया करते थे। तीन-चार दिन बाद ओंठि हो जाती थी यानि खेत जोतने योग्य हो जाता था। तब बड़े वाले बैल की गोई (जोड़ी) से खेत की जुताई कर देते थे। खेत के कोनों को जहां हर (हल) नहीं पहुंचता था वहां फरुहा (फावड़ा) से गोंड़ (खुदाई) दिया जाता था। फिर सरावनि (लकड़ी का मोटा पटरा) से खेत को बराबर कर दिया जाता था। खेत की जितनी खरपतवार, घास-दूब थी, उसे निकालकर बाहर कर दिया जाता।
उसके बाद पूरे खेत में लबालब पानी भर दिया करते थे। पानी भरे हुए खेत में दो-तीन बार अमिला (जुताई और पटाई) कर देते। अमिला के बाद खेत की मिट्टी बिल्कुल मुलायम हो जाती थी। मतलब खेत धान बोने के लिए बिल्कुल तैयार हो चुका होता। उधर घर में बोरों से ढककर रखे हुए धान भी अंकुरित हो चुके होते थे। धान के बीज से सफेद अंकुर बाहर झांकने लगते थे।
तब भाई बाबा बड़े वाले डेलवा में अंकुरित धान को खेत ले जाने से पहले एक मुट्ठी धान घर के बाहर नीम के पेड़ की नीचे चबूतरे में स्थापित शिवलिंग पर चढ़ाना न भूलते। फिर भोले बाबा का आशीर्वाद लेकर सीधे खेत पहुंच जाते। खेत में धान छितराने से पहले पूरे खेत का पानी खूब गंदा कर दिया जाता था- ताकि जब बीज बोए जाएं, तो इस गंदे पानी की परत धान के बीज के ऊपर चढ़ जाए और पक्षियों, चिड़ियों को ऊपर से धान आसानी से न दिखे और वह इसे चुग न सके।
पूरी तैयारी के बाद बाबा खेत की मेंड़ पर झुककर प्रणाम करते, भगवान का नाम लेते। फिर अपने हाथों से अंकुरित धान छितराने लगते। बाबा हमेशा कहते थे कि बाएं हाथ यानि उल्टे हाथ से कोई शुभ कार्य नहीं करना चाहिए, नहीं तो परिणाम सदैव उल्टा ही प्राप्त होता है। इसलिए वह हमेशा दाहिने हाथ से, सीधे हाथ से ही धान बिथराना शुरू करते। पूरे खेत में धान छितराने के बाद बाबा कुछ संतुष्ट भाव से घर वापस आ जाते कि- चलो एक चरण तो पूरा हुआ।
लेकिन अभी संतुष्ट होने का समय कहाँ है? शुरुआत के कुछ दिन खेत की कड़ी रखवाली करनी पड़ी। पहले तो यह कि भरे पानी की अधिक गर्मी से धान खराब न हो जाएं इसलिए सुबह पानी उतार देते और शाम को फिर भर देते। लपक्षियों से भी धान को बचाना पड़ता था। पानी पीने आए नीलगाय और गाय-भैंस से खेत को सुरक्षित रखना पड़ता था- क्योंकि एक बार जिस स्थान पर पशुओं के खुर पड़ गए, तो समझो वहां पौधा न पनपेगा। यह कार्य बच्चा पार्टी के हवाले रहता।
हम ट्यूबवेल के पास दुनिया भर के खेल खेलते, घर से लाई हुई, गुड़-लैया, चना चबेना खाते, ट्यूबवेल का ठंडा पानी पीते, उसकी हौदी में घंटों नहाते। कभी चिड़ियों का झुंड दिख जाता तो “हुर्रे-हुर्रे” कहकर शोर मचा देते। पशुओं को देखते ही डंडा उठाकर “हट,-हट” करने लगते। खेत की रखवाली की बड़ी जिम्मेदारी हमारे छोटे-छोटे कंधों पर ही होती थी।
धान बोने के एक सप्ताह बाद ही धान से छोटी-छोटी हरी मुलायम कोंपले बाहर निकलने लगती। कोंपलें निकलने के बाद पक्षियों का डर नहीं रहता, बस जानवरों का ध्यान रखना पड़ता था। सब कुछ ठीक रहता तो तीन-चार सप्ताह के बाद बेंड़ रोपने के लिए तैयार हो जाती थी।
तब तक आषाढ़ का महीना आ जाता था। गांव के बड़े-बुजुर्ग कहते कि जब पछुआ हवा के बीच पुरवा बहने लगे तो समझो कि बारिश कभी भी आ सकती है। जेठ की तपती दोपहरी के बाद आषाढ़ की बारिश होती तो लगता कि असली जीवन तो यही है।
सूखी खामोशी के बाद आर्द्र मुस्कान के दर्शन होते तो तन-मन प्रफुल्लित हो उठता। रोआं-रोआं खुशी से नाच उठता। आषाढ़ की पहली बूंद जब मिट्टी से टकराती, तो एक अद्भुत खुशबू उठती। वह महक न किसी इत्र में होती, न किसी गुलाब में। वह ‘सौंंधी’ खुशबू – बिल्कुल विशिष्ट होती, जिसे बस वही लोग ही समझ सकते हैं, जिन्होंने उसे महसूस किया है।
इधर आषाढ़ शुरू होता, उधर बेंड़ खेत में रोपने के लिए पूरी तरह तैयार हो चुकी होती। इसलिए भाई बाबा गांव के पासिन टोला, गुड़ियन का पुरवा; पड़ोस के अहिरन का पुरवा में मजूरों (मजदूरों) की गिनती अगले दिन के लिए कर आते थे। अगले दिन सुबह से घर के सभी लोग, सुंदर बाबा, हिरऊ बाबा सरावनि में बैठकर बेंड़ उखाड़ने लगते।
बेंड़ के एक-एक पौधे को जड़ से उखाड़ कर मूठी (मुट्ठी) भर जाने पर उसकी जोरई (जूरी) बनाकर पीछे रखते जाते। जैसे-जैसे बेंड़ उखड़ती जाती, खेत खाली होता जाता। हरे रंग पर गंदला रंग उभरता जाता और सरावनि इसी गंदले खेत में थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ती जाती।
एक झौआ से अधिक बेंड़ की जूरी तैयार हो जाती तो उसे लेकर चाचा धान रोपने के लिए तैयार बड़े वाले खेत ‘बीजर’ में पहुंच जाते। एक छोटे छीटा (टोकरी) में बेंड़ लेकर मैं भी उनके पीछे-पीछे पहुंच जाता। चाचा बेंड़ को पूरे खेत में कुछ-कुछ फासले पर फैलाते जाते ताकि मजूरों को बेंड़ लगाते समय ज्यादा इधर उधर न भागना पड़े।
कुछ देर बाद बेंड़ लगाने वाले मजूरों की टोली आ जाती। सभी महिलाएं ही होती। हंसी मजाक करती वह महिलाएं अपनी धोती को घुटनो तक समेट कर पानी भरे खेत में प्रवेश कर जाती। राम का नाम लेकर बेंड़ की पहली जूरी खोलती और फिर एक-एक धान का पौधा अपने सधे और अनुभवी हाथों से बराबर दूरी पर रोपना शुरू कर देती। मैं महिलाओं के पीछे-पीछे उन्हें बेंड़ देते जाता। जहां बेंड़ ज्यादा हो जाती या बच जाती, वहां से हटाते जाता और जहां कम होती वहां पर बेंड़ रखते जाता।
अब महिलाएं आषाढ़ का गीत सामूहिक स्वर में गाना शुरू कर देती-
“चला सखी रोपि आई खेतवन में धान, बरसि जाई पानी रे हारी..”,
एक महिला गीत की पहली पंक्ति गाती और बाकी महिलाएं उसके पीछे दुहराती जाती। उनके गीतों में देसीपन होता, स्वरलय भी कभी गड़बड़ हो जाता, लेकिन भाव बिल्कुल शुद्ध, सात्विक होते। भगवान इंद्र भी शायद ही उनकी इस निर्दोष जन हितकारी मांग को ठुकरा पाते होंगे। बीच-बीच में वे एक दूसरे से चुहलबाजी भी करती जाती थी।
इस सामूहिक स्वर में एक आवाज सबसे अलग थी, बिल्कुल विशिष्ट। उसकी आवाज सबसे अलग थी – थोड़ी धीमी, थोड़ी कच्ची, मगर बेहद मीठी। वह एक किशोरी थी, शायद मेरी ही उमर की। रंग थोड़ा सांवला चेहरे की गढ़न थोड़ी तीखी। बड़ी-बड़ी और बोलती सी आंखे और सुतंवा नाक। उसने गुलाबी रंग का सूट पहन रखा था। लंबे, घने बिल्कुल काले बालों को बड़ा सा जूड़ा बनाकर सिर की पीछे मजबूती से बांध रखा था।
उसने नाक में महीन सी नथ, माथे में एकदम छोटा सा टीका लगा रखा था। माथे और चेहरे पर पसीने की बूंदे लुढ़क रही थी जिन्हें वह कुछ-कुछ समय के बाद अपने दुपट्टे से पोछती जाती थी। साथ की महिलाएं उसे “रूपा” कहकर बुलाती थी। जब मैंने उसे कुछ गौर से देखा तो पाया कि सचमुच रूपमती थी वह। उसके मां-बाप ने सोच समझकर ही उसका नाम “रूपा” रखा होगा।
रूपा के रूप में मैं कुछ देर के लिए यूँ खोया कि मैंने बेंड़ उठा कर रूपा के बिल्कुल पीछे फेंक दी। पानी का छिट्टा रूपा सहित दो महिलाओं पर गिरा। रूपा ने तो हल्की शर्म के साथ मुझे देखा और फिर मुस्कुरा कर अपना काम करने लगी लेकिन अन्य दो महिलाएं मुझे गुस्से से घूरने लगी। तब चाचा ने मुझे जोर से डांटा- बेंड़ ऐसे दूर से नहीं फेंकनी है, वहां पास जाकर रखना होता है।
इनके कपड़े गीले हो गए तो यह लोग दिन भर इन्हीं गीले कपड़ों में कैसे काम करेंगी? यह उनका रोज का काम है। बीमार हो जाएंगी। खैर महिलाओं ने ज्यादा बुरा नहीं माना। पता नहीं क्या समझकर मुझे माफ कर दिया और फिर से अपने काम में जुट गई।
दोपहर होने को आई तो बाबा खुद घर की तरफ जाने लगे और मुझे अपने साथ ले गए। वहां गेंहू और चना उबालकर और उसमें थोड़ा लोन (नमक) डालकर बनाई हुई घुघरी अजिया ने बनाकर पहले से तैयार रखी हुई थी। उसके साथ लहसुन, हरी मिर्च को मिलाकर सिलवट (सिलबट्टे) में पीसा हुआ नमक भी तैयार था।
बाबा एक बड़ी डलिया में कपड़े के ऊपर घुघुरी डालकर, डलिया को पूरा भर दिए और फिर उसी कपड़े से घुघुरी को पूरा ढककर खेत की ओर चल पड़े। उनके खेत पर पहुंचते ही महिलाएं हाथ-पैर धोकर मेंड़ पर बैठ गई। बाबा उन्हें अपनी अजूरे (दोनों हाथों) से भर-भर कर घुघुरी देते जा रहे हैं। महिलाएं अपने आंचल में इसे लेती जा रही हैं। दोबारा मांगने पर भी बाबा मना नहीं करते, हंस-हंसकर देते जा रहे हैं।
हाथ से नमक देने और लेने से लड़ाई होती है, मनमुटाव होता है इसलिए महिलाएं कागज में या किसी साफ पत्ते में चम्मच से नमक ले रही हैं। अरे यह क्या मैंने रूपा को हाथ से नमक दे दिया, अब उसे चुटकी काटनी पड़ेगी। नहीं तो लड़ाई हो जाएगी। रूपा ने जब दोबारा घुघुरी ली, उसने नमक के लिए मेरी ओर देखा। मैं कांपते हाथों से उसे कागज में नमक देने लगा। उसने हंसी छिपाते हुए कहा – “हाथ से दोगे तो फिर से चुटकी काटनी पड़ेगी…”
दोनों की हंसी फूट पड़ी। आसपास की महिलाएं भी मुस्करा दीं।
दुनिया में बहुत से स्वादिष्ट व्यंजन होंगे। लेकिन बदरी (बादल) वाले मौसम में आषाढ़ के महीने में खूब तेज भूख लगने पर खेत की मेड़ पर बैठकर घुघुरी खाने का जो स्वाद है वह अकल्पनीय है, अद्भुत, दैवीय है।
अब बाबा ने कुछ देर के लिए इंजन चला दिया है। सब महिलाएं इंजन की हौदी से ताज़ा पानी पीकर पुनः बेंड़ रोपने लगी है। उनका गाना भी बदस्तूर जारी है –
“हरी हरी काशी रे, हरी हरी जवा के खेत।
हरी हरी पगड़ी रे बांधे बीरन भैया,
चले हैं बहिनिया के देस।
केकरे दुआरे घन बँसवारी,
केकरे दुआरे फुलवारी, नैन रतनारी हो।
बाबा दुआरे घन बंसवारी,
सैंया दुआरे फुलवारी, नैन रतनारी हो।”…….
उनकी आवाज में थकावट कम, उत्साह ज्यादा था। खेत धीरे-धीरे हरा होता जा रहा था। उनका गाना भी जारी रहा-
“मइया मोरी, आषाढ़ के बदरिया,
साजन के बलमुआ के बइठल नदिया किनारे…”
अब सूरज ढलने को है। खेत भी थोड़ा ही बचा हुआ है। बाबा खेत में आ गए हैं। संयोग देखिए कि शाम होने से पहले ही पूरे खेत में बेंड़ लग गई है। अब महिलाएं हाथ-पैर धोकर बाबा को घेर कर खड़ी हो गई हैं। बाबा उन्हें 7-7 रुपए देते जा रहे हैं। रूपा की अम्मा, उसकी बड़ी बहन और वह खुद भी आई है इसलिए रूपा की अम्मा को पूरे 21/- रुपये मिले हैं, सबसे ज्यादा।
सबका हिसाब करने के बाद बाबा ने याद दिला दिया है कि कल भी सब लोगों को आना है, बलदुआ खेत में बेड़ लगाने के लिए। थकी-हारी लेकिन संतुष्ट महिलाएं अगले दिन बलदुआ खेत में आने का वादा करके अपने घर की ओर जाने लगी हैं। जाते-जाते रूपा एक बार मेरी ओर देखकर कुछ रहस्यमयी ढंग से मुस्कराई और फिर बिना मुड़े अपनी अम्मा के पीछे चल पड़ी।
रूपा के जाने के कुछ ही देर बाद आसमान में सिंदूरी शाम उतर आई। खेत का गंदला पानी अब थिर होकर चांदी की परत की तरह चमक रहा था और उस पर तैर रहे थे- गीत, हंसी और किसी अनाम, अबूझ रिश्ते की खुशबू।
(विनय सिंह बैस)
बैसवारा के बरी गांव निवासी, जहां आषाढ़ में धान के साथ रिश्ते भी पनपते थे।

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