विनय सिंह बैस की कलम से…पितृ पक्ष 

विनय सिंह बैस, नई दिल्ली। लगभग तीन दशक पहले की बात है। मैं 12वीं कक्षा में पढ़ता था। हमें लालगंज बैसवारा में रहते हुए 6-7 साल हो गए थे। इसलिए अब तक सब कुछ तय सा हो गया था। पढाई के लिए बैसवारा इंटर कॉलेज, फिजिक्स ट्यूशन एल.के. पांडेय जी के पास, केमिस्ट्री के लिए मिश्रा जी, मैथ डी.के. दीक्षित जी के पास और अंग्रेजी का ट्यूशन चाचाश्री नरेन्द्र बहादुर सिंह के पास।

इसी तरह कॉपी-किताब के लिए बाजपेयी बुक स्टॉल और दवा-दरमत के लिए डॉ. ओ.पी. सिंह, होम्योपैथी वाले तय थे। तय इसलिए कि इन जगहों पर हमें पैसे देने की मजबूरी न थी। हुए तो दे दिया, न हुए तो पापा का नाम बता दिया। काम हो जाता था।

हमारा पैतृक गांव बरी था। बाबा और परिवार के अन्य सदस्य अब भी वहीं रहते थे। पापा हर रविवार को गांव जाते और उन लोगों की जरूरत का सारा सामान ले जाते थे तथा वापसी में खाने-पीने का सामान, दूध-घी आदि लालगंज ले आते थे। गांव में कोई बीमार हो जाता तो उसे लालगंज ही आना पड़ता था। वैसे तो मरीज को डॉक्टर के पास दिखाने का कार्य पापा का था लेकिन उनकी अनुपस्थिति में भैया या मुझे यह जिम्मेदारी निभानी पड़ती थी।

एक बार बाबा के बीमार पड़ने पर, उनको दिखाने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर आ पड़ी क्योंकि पापा घर पर नहीं थे। बाबा के डॉक्टर फिक्स थे। उनकी हर बीमारी का इलाज पंडित ननकऊ ‘वैद्य जी” ही करते थे। इसलिए मैं उनको वैद्य जी के पास लेकर गया। पहुँचते ही बाबा ने “वैद्य जी पांय लागी” कहकर पैंलगी की और वैद्य जी ने ” मजे मां रहो लंबरदार” कहकर आशीर्वाद दिया।

फिर हम बैठ गए और अपनी बारी का इंतजार करने लगे। करीब 15 मिनट बाद हमारा नम्बर आया। बाबा ने अपनी बीमारी तो शार्ट में बताई लेकिन गांव-घर का हाल विस्तार से बताया। वैद्य जी बाबा की नाड़ी पकड़े हुए एकौनी वाले श्री रामलखन सिंह से लेकर अजीतपुर के बघेल साहब का हाल चाल पूछते रहे। इस बीच वह एक छोटे से कागज में अंग्रेजी दवाइयों के नाम हिंदी में लिखते रहे। फिर मुझे वह पर्चा पकड़ाया और बोले बेटा बगल वाले मेडिकल स्टोर से ले आओ।

हम दवा लेकर आए। वैद्य जी ने दवाओं को एक कटोरी में पीसा, उसमे कुछ चूरन जैसा मिलाया और फिर कागज की कई पुड़िया बना दी। पुड़िया बन जाने के वह बाबा से बोले –
“लंबरदार, एक-एक पुड़िया तीन बार पानी के साथ खा लेना और यह शीशी वाली दवाई सुबह शाम 5-5 बूंद पी लेना।”
बाबा ने सहमति में सिर हिलाया, फिर दो रुपये की फीस वैद्य जो को दी, उनके पैर छुए और हम दोनों बाहर आ गए।

अगले साल बीएससी की पढाई के लिए मुझे कानपुर जाना पड़ा। गर्मी की छुट्टियों में घर आया तो देखा छोटे बाबा घर मे बैठे हुए थे। पापा ने मुझसे कहा, “मुन्ना, अच्छा हुआ तुम आ गए। मुझे आज कई जगह शादियों में व्यवहार देने जाना है। खाना-पीना खा लो फिर बाबा को डॉक्टर के पास लिए जाना। इनकी सांस फूलती है। “मैंने कहा ठीक है। यह सुनकर पापा चले गए।

इधर कुछ महीनों में ही मुझे कानपुर की हवा लग चुकी थी। मेरे लिए डॉक्टर केवल वही था जिसके पास MBBS, MD या BHMS की डिग्री हो। बाकी सब को मैं झोला छाप ही समझता था। इसलिए रास्ते भर मैं बाबा का ब्रेनवाश करता रहा। वह वैद्य जी पर अड़े हुए थे और मै डॉ. ओ.पी. सिंह, होम्योपैथी वाले को रिकमेंड करता रहा। अन्ततः, बाबा को नाती की बात माननी ही पड़ी। मैं जीत गया। अब मेरे तर्क भारी पड़े या उनका मेरे प्रति स्नेह, यह कहना मुश्किल था।

खैर, मैं बाबा को लेकर डॉ. ओ.पी. सिंह के क्लीनिक के पास रुका। क्लीनिक के ठीक सामने, सड़क के उस पार वैद्य जी का दवाखाना था। बाबा पहली बार वैद्य जी के अलावा किसी और डॉक्टर के पास इलाज के लिए जा रहे थे। वह वैद्य जी के दवाखाने की तरफ से भी देखते जाते क्योंकि उन्हें संकोच था कि अगर वैद्य जी ने गलती से उन्हें देख लिया और पूछ बैठे कि – “लंबरदार वहाँ क्या कर रहे हो?”
तो उनके पास क्या जवाब होगा?

विनय सिंह बैस, लेखक/अनुवाद अधिकारी

एक तरफ वैद्य जी से वर्षों पुराना नाता और दूसरी तरफ पोते की जिद। बाबा चल तो मेरे साथ रहे थे लेकिन देख नजरें चुराकर वैद्य जी के दवाखाने की तरफ रहे थे। शरीर इधर घुस रहा था, मन वैद्य जी के पास पहुंच चुका था। खैर किसी तरह हम बेंच पर बैठे। नंबर आया तो मैंने डॉक्टर साहब को नमस्ते किया और बताया कि बाबा को दिखाने लाए हैं। बाबा स्टूल पर बैठाए गए। वह कुछ असहज से लग रहे थे। जैसे किसी ने जबरदस्ती किसी बच्चे को पकड़ कर मास्टर जी के पास बैठा दिया हो। वह काफी देर तक कुछ न बोले। शायद वह सोच रहे थे कि वैद्य जी की तरह डॉक्टर साहब भी कुछ राम-जोहार करेंगे, गांव-जंवार का हाल चाल लेंगे तब बीमारी के बारे में पूछेंगे। लेकिन यहां तो डॉक्टर साहब ने बिना किसी प्रस्तावना के सीधे ही पूछ लिया – “क्या परेशानी है चाचाजी?”

बाबा को अच्छा तो बिल्कुल भी नहीं लगा होगा। शायद इसीलिए मुझे घूरते हुए और डॉक्टर साहब का लिहाज करते हुए बड़ी मुश्किल से वह अपनी बीमारी बेमन से बुदबुदा पाए।

सांस की समस्या सुनते ही डॉक्टर साहब ने गले से स्टेथोस्कोप बाहर निकाला और बाबा के सीने में लगा दिया और बोले – “चाचा, लंबी-लंबी सांस लो, फिर छोड़ दो।”
बाबा थोड़े घबरा गए। जैसे किसी ने सीने पर पिस्तौल रखकर “हैंड्स अप” करने को बोल दिया हो। मैंने उनसे निवेदन किया तो उन्होंने गहरी सांस लेकर छोड़ना शुरू किया। खैर किसी तरह यह कठिन समय गुजरा। अब डॉक्टर साहब ने एक मोटी किताब निकाल ली। वे बाबा से पूछते जाते और बड़े से पर्चे में कुछ लिखते जाते –

“कब से समस्या है?
अब तक क्या इलाज किया?
कोई दवा खाते हो?
हुक्का पीते हो?
पान भी खाते हो?
पान में तंबाकू डाल कर खाते हो? सर्दी ज्यादा लगती है या गर्मी?
मीठा अच्छा लगता है या तीखा?पिछली बार कब बीमार पड़े थे? और किस कारण से?”

इतने प्रश्न सुनकर बाबा झुंझलाते, कुढ़ते जाते। वह कभी मुझे देखते और कभी डॉक्टर साहब को फिर अनमने से जवाब देते जाते।

“ठीक है, मैंने दवा लिख दी है। साफ जीभ पर खाना। पान, हुक्का, बीड़ी दवा लेने तक बिल्कुल छोड़ना होगा।” डॉक्टर साहब ने हिदायत देकर बाबा को बाहर भेज दिया।

7-8 मिनट का यह चेक-अप और डायग्नोसिस बाबा के लिए मानों सदियों समान बीता। बाहर आए तो चेहरा लाल था और भौंहे तनी हुई। होंठ सूख रहे थे। मैंने उठकर पास रखी सुराही से एक गिलास पानी दिया। बाबा ने बमुश्किल दो घूंट पानी पिया और गुस्से में बोले –
“तुम इनको डॉक्टर कहते हो?
आला सीने में लगाए रोड की तरफ देख रहें हैं??
सब कुछ हमको ही बताना है तो ये किस चीज के डॉक्टर हैं???

डॉक्टर वह होता है जो मरीज का पहले हाल-चाल पूछे। नाड़ी पकड़े और मर्ज समझ जाए। यह नहीं कि मरीज से उसकी जन्मपत्री, पूरी हगनी-मुतनी पूछने लगे????

हमारे वैद्य जी ने कभी न कहा कि पान-सुपारी, हुक्का-पानी सब छोड़ दो। इनका वश चलता तो खाना-पीना छोड़ने को भी बोल देते। इनके पास दोबारा मत लाना मुझे। जब कुछ खाना-पीना ही नहीं तो ऐसे जीने का क्या फायदा?” बाबा खूब गुस्से में थे और अपनी पूरी भड़ास निकाल के ही माने।

बाबा डांटते रहे और मैं चुपचाप अपराधी सा सुनता रहा। फिर रुआंसे होकर किसी तरह मैंने दवा ली। घर आया। रात को पैर दबाते समय पापा को पूरी रामकहानी बताई। पापा ने धैर्य से सुना और प्यार से बोले –

“बच्चा, विश्वास ही सबसे कारगर इलाज है। डॉक्टर और दवाएं तो निमित्त मात्र हैं। अगर डॉक्टर पर विश्वास ही न हो तो अच्छी से अच्छी दवा भी फायदा न करेगी और विश्वास हो तो दवा के नाम पर सादी दवा की टिकिया भी रामबाण औषधि बन जाएगी।”

इस घटना के बाद बाबा वैद्य जी के अलावा किसी और डॉक्टर के पास कभी नहीं गए और पापा की सीख के बाद उन्हें कहीं और ले जाने का मैंने प्रयास भी नहीं किया।
#पितृ पक्ष

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