विनय सिंह बैस की कलम से : “हमारा समर हॉलीडे”

नई दिल्ली। यह उन दिनों की बात है जब ‘हॉलीडे होमवर्क’ जैसी क्रूर प्रथा चलन में नहीं आई थी। ‘समर हॉलीडे’ मतलब कॉपी-किताब को बाय-बाय और फुल टू मस्ती को हैलो-हाय। ‘समर हॉलीडे’ मतलब पढ़ाई लिखाई को ‘कट्टी’ और खेल-खिलौनों, शरारतों से ‘अब्बा’।

तब अप्रैल माह के अंत तक हमारी वार्षिक परीक्षा हो जाया करती थी। उसके बाद से हमारे ‘मस्ती’ शुरू हो जाती थी। पर 20 मई को रिजल्ट मिलते ही आधिकारिक तौर पर हमारे ‘अच्छे दिन’ शुरू हो जाते थे। विद्यालय पुनः 01 जुलाई को खुलते थे, अतः एक महीना दस दिन यानि पूरे चालीस दिन हमारे पास एन्जॉय करने, तनावमुक्त जीवन जीने के लिए रहते थे।

इन 40 दिनों में हम कुछ दिनों के लिए अम्मा के साथ मामा के घर आम खाने पहुंच जाते थे। कभी मन हुआ तो बुआ की विदाई के वक्त रोने धोने का नाटक कर के उनके घर पके कटहल खाने निकल लेते। मौसी का घर तो पास ही था इसलिए खरबूजा, तरबूज का स्वाद लेने कभी भी निकल जाते।

गांव में रहते तो सुबह हरहा चराने जंगल निकल जाते। वहां कभी भैंस के ऊपर सवार होकर यमराज बन जाते तो कभी ट्यूबवेल की हौदी में घुसकर ठंडे, ताज़े पानी से जी भरकर नहाते और गला फाड़कर चिल्लाते- “अपना गांव, अपना देश। खुल्ला खाओ, नंगा नहाओ।” हम कई बार हौदी में कुछ खेल खेलते, ट्यूबवेल की आउटलेट पाइप से गति और फ़ोर्स के साथ निकलती जलधार के सामने देर तक सिर टिकाए रखने की प्रतिस्पर्धा करते तो कभी गिट्टी/कंकड़ इकट्ठा करते और घंटों नहाते। पर इससे पानी की बर्बादी बिल्कुल भी न होती थी क्योंकि पानी तो खेतों में ही जाता था। गाय-भैंसों को भी उस दिन तालाब के ठहरे और गंदे पानी के बजाय ट्यूबवेल का ताजा और ठंडा पानी पीने को मिलता, जिससे उनकी प्यास भी बुझती और आत्मा भी तृप्त होती।

आम के पेड़ के पार वाले जंगल में जब गाय-भैंस चरने लग जाते तो हम छोटे छोटे कंकडों या लकड़ी से शतरंज जैसा एक खेल खेलते। नहरिया पार जगतपुर या चिखड़ी गांव की तरफ निकल जाते तो जंगल में कंजी के पेड़ पर गुलहरि का खेल खेलते। नीचे रखे डंडे को पकड़ने और चोर बनने से बचने के लिए जितनी तेजी से पेड़ पर चढ़ते, उससे अधिक फुर्ती से डांड़ पकड़कर नीचे कूद जाते। उस समय हमारी फुर्ती देखते ही बनती थी। बंदर भी हमारी कुशल कलाबाजी देख लेते तो शायद भौचक्के रह जाते, दांतो तले उंगली दबा लेते। वह एक पल के लिए मानने पर मजबूर हो जाते कि सचमुच मनुष्य ही बंदरों का लेटेस्ट वर्जन है।

हरहा चराकर वापस घर आते हुए गर्मी से परेशान भैंसें कभी दनकुंवा तालाब में जबर्दस्ती दौड़कर कूद जाती और फिर घंटों न निकलती, तो हम उन्हें निकालने के बहाने पूरा तालाब मंझा डालते। तालाब के इस कोने से तैरकर एक बार में उस कोने में निकलते। नाक बंद करके डुब्बी मार लेते फिर मिनटों बाद तालाब के किसी दूसरे कोने में प्रकट होते।

इन छुट्टियों के दौरान हम महीने में एक दो बार खरहरा लेकर बैलों को लेकर एकौनी के पुल के पास नहर में नहलाने-धोने निकल जाते। गांव के बाहर जाने तक बैलों को चाल में ले जाते, कोड़रा के पास तक हुदकी में जाते और फिर नहर के पुल तक उन्हें फुल स्पीड दौड़ाते हुए ले जाते। वहां बैल को नहलाना, धोना सेकंडरी काम हो जाता। प्राइमरी कार्य होता पुल के ऊपर से सिर के बल कूदना और फिर सीधा होकर, पैर को जोर से पानी में मारकर पानी के ऊपर आ जाना फिर तैरते हुए किनारे पहुंच जाना। जिन्हें तैरना नहीं आता था, वह नहर के किनारे तैरने का अभ्यास करते, बैल की पूंछ पकड़कर बिना मेहनत तैरने का आनंद लेते। उस समय गांव के सभी बच्चों के लिए नहर ही स्विमिंग अकैडमी और स्विमिंग पूल थी।

गर्मी भर रोज दोपहर को बाबू (बाबा) की चौपार में गांव भर के ताश खेलने वालों का जमघट लगता था। हम भी वहां दर्शक बनकर ताश के दांव पेंच देखते। कोट-पीस और दहिला पकड़ का खेल होता था। एक बार बाजी बिछ जाती तो न जेठ की दुपहरी का भान रहता न समय का पता चलता। “जल्दी चाल चलो, मेरे पत्ते मत झांको, तुम हमेशा बेईमानी करते हो, तुम कौन से हरिश्चंद्र हो, मेरा गुल्ला सररररर, मेरा एक्का सब पर भारी, महीन-महीन पीसते रहो और सबको बांटते रहो, कोट कर दिया, गुंहा कोट कर दिया, ये मारा, वो काटा, ये बटोरा” जैसे जुमले हवा में तब तक उछलते रहते जब तक कि दूसरी पहर हरहा-गोरु चराने का समय न हो जाता।

कभी दुरूपा बुआ (आजी) के साथ एक दो हमजोलियों को लेकर खुद भी ताश खेलने बैठ जाते। यहां दहिला पकड़ और कोट-पीस न होता बल्कि तीन खिलाड़ियों वाला ‘हाथ खींचने’ वाला खेल होता। बुआ का हाथ बन जाता या फिर कोई बड़ा या ट्रम्प वाला पत्ता किसी से खींच लेती तो खूब मुंह बिराती। मुंह को गोल गोल करके -” टी ली ली ली” करती। वह कुछ समय के लिए बूढ़ी बुआ न रहकर बच्ची बन जाती थी। हम लोग भी बुआ को चिढ़ाने का अवसर मिलने पर कोई लिहाज न करते थे।

गर्मी की छुट्टियों के अंतिम दौर में बाबा पांस (गोबर की खाद) ढोने के लिए लढिया (बैलगाड़ी) के तीनों तरफ लगाने के लिए पैरा और अरहर की लग्घी की छपरी बनाते। फिर दोनों घूरों से उसमें पांस भरी जाती। ऊपर की पांस तो खर पतवार, सूखा गोबर होती लेकिन कुछ नीचे जाने पर शुद्ध गोबर की गीली, सड़ी देसी खाद निकलती। उससे बदबू तो बहुत आती थी पर बिलासपुरी और अन्य महीन धानों की खुशबू का राज यही पांस थी। धान की अधिक पैदावार पांस पड़ने पर ही होती थी।

बैलगाड़ी पूरी भर जाने के बाद पांस को खेतों में फैलाने के लिए हम निकल पड़ते। नालियों को पाटकर और खेत की मेड़ों को काटकर रास्ता बनाया जाता, खूंडे बनाये जाते। फिर तय दूरी पर पूरे खेत मे पांस के गोल- गोल ढेर गिरा दिए जाते। बाद में उसे फरुआ से पूरे खेत में फैला दिया जाता।

बरसात आने से पहले तालाब से मिट्टी खोदकर, उसे गीला करके फिर उसमें गठुरा मिलाकर छत की मरम्मत की जाती। चरही, नहा, दीवारों को दुरुस्त किया जाता, उनकी पुताई की जाती। बरसात में बह गई दरवाजे की मिट्टी की भरपाई हेतु तालाब की मिट्टी डालकर उसे ऊंचा किया जाता। इसी मिट्टी से नए चूल्हे, नई बोरसी भी बनाई जाती।

आसाढ बरसने से पहले सारे पुराने छप्पर दुरुस्त किये जाते। ज्यादा खराब हो चुके छप्परों की जगह नए छप्पर छाए जाते। छप्पर बुनना एक कला होती थी। दीवार ढकने वाले छप्पर कोई भी बना सकता था लेकिन सुंदर, दर्शनीय छप्पर सुंदर बाबा, उपेंद्र चाचा, नौमेश बाबा ही बुन सकते थे। छप्पर बुन जाने के बाद उसे उठाने के लिए लोगों को बुलौवा भेजा जाता था। “फलाने के यहां छप्पर उठाने का बुलौवा है” गोहराते हुए एक आदमी सबके दरवाजे जाता। छोटा छप्पर हुआ तो मुहल्ले भर के लोग आते, बड़े छप्पर उठाने के लिए गांव भर के हष्ट पुष्ट लोग बुलाये जाते थे। राजबख्श बाबा, ज्ञानी बाबा जैसे बलिष्ठ लोग छप्पर के जिस गूला को उठा लेते थे, उधर फिर और किसी की जरूरत न पड़ती।

छप्पर उठाना, लड़की की शादी में सहयोग करना, सुरेश बाबा के सौजन्य से आयोजित यज्ञ और रामलीला में दान देना, प्रभात चाचा के क्रिकेट टूर्नामेंट में अंशदान करना, किसी के भी घर आग लगने पर भरी बाल्टी लेकर दौड़ पड़ना, गांव का अलिखित संविधान था। इस संविधान से सब छोटे-बड़े सब बंधे थे, सब इसे मानते थे। गांव के आपसी झगड़ों का निपटारा भी गांव के वरिष्ठ और प्रभावशाली लोगों की पंचायत ही करती थी। तब छोटे-मोटे विवादों में पुलिस बुलाना और न्यायालय जाना पंचायत का अपमान समझा जाता था।

गर्मी की छुट्टी के दौरान हमारा ‘टाइम टेबल’ कुछ यूं होता था। सुबह शौच से निवृत्त होने के बाद राठौर फूफा के कैथा के पेड़ में पके हुए कैथे बीनने जाते। न मिलता तो ढेला मार कर खुद ही कच्चे कैथा तोड़ने लग जाते। घर आकर मंजन दातून करने के बाद भाई बाबा के साथ गाय भैंस दुहते समय बछवा/बछिया, पड़वा/ पड़िया पकड़ते। दुहने के बाद बाबा बाल्टी लेकर घर आते, दूध गरम किया जाता और फिर अजिया हमें कठौता से ढांककर रखी हुई बासी रोटियां गरम गाढ़े दूध में मींजकर और गुड़ डालकर देती। लेकिन हम और गुड़ के लिए तब तक हल्ला करते रहते, पैर पटकते रहते जब तक आधी भेली गुड़ हमारी थाली में न पड़ जाता और दूध का रंग सफेद से लाल न हो जाता।

देर सुबह हरहा चराने निकल जाते। वहां से लौटते तो नहाने-खाने के बाद बड़ों की नजर बचाकर हम किसी दिन दोपहर में सरदार च मार की फरेंद जामुन में धावा बोल देते। किस्मत अच्छी रहती तो खूब छककर खाते और कुछ बांध भी लाते। उधर दांव न लगता तो प्रभात चाचा के घर के पीछे वाली गुठलैवा जामुन से संतोष कर लेते। बनईमऊ में नहर की पटरी पर बहुत सारे और सब तरह के जामुन के पेड़ थे। लेकिन वह घर से लगभग दो किलोमीटर दूर थे इसलिए वहां एक आध बार ही जा पाते। लेकिन जब जाते तो गले तक खाते और झोला भरकर लाते।

शाम को बाग में क्रिकेट खेलते। गेंद का जुगाड़ कुछ उस तरह होता- सायकिल के बेकार पड़े ट्यूब को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर रबड़ बनाई जाती और फिर इस रबड़ को थोड़े से कागज या कपड़े के गोल टुकड़े पर चढ़ाते चले जाते। तब तक जब तक कि गेंद तैयार न हो जाती। प्लास्टिक को जलाकर और उसे गोलाकार आकार देकर भी गेंद बनाई गई थी लेकिन इस गेंद से चोट बहुत लगती थी। जिसको शरीर में जहां लग जाती, वह स्थान लाल हो जाता। कमर के नीचे और जांघ के ऊपर लग जाती तो बैट्समैन पूरे एक हफ्ते के लिए रिटायर्ड हर्ट हो जाता था।

जबकि ट्यूब के रबड़ वाली गेंद मुलायम होती और उछलती भी खूब थी। बस उसमें कमी यह होती कि कई बार बोलिंग करते समय या तेज़ शॉट मारने पर उसकी रबड़ उतरने लगती थी और गेंद छोटी हो जाती थी। कॉर्क और लेदर की भी सेकंड हैंड बाल हमें कभी- कभी मिल जाती थी। बल्ला तो लकड़ी का ही होता था। प्रॉपर बैट तो हमें कभी सेकंड हैंड भी न मिला। लेकिन इससे हमारे जोश में कोई कमी नहीं आती थी। हम खूब क्रिकेट खेले, मन से खेले। यह और बात है कि हमारी सारी प्रतिभा गांव तक ही सीमित रह गई। हम कभी वैभव सूर्यवंशी न बन पाए।

अंधेरा होने पर घर लौट आते। हाथ पैर धोकर कुछ चना चबेना, गुड़ खाते और फिर बेना लेकर गठुरा वाली आग से गाय, भैंस को धुंवा करने पहुंच जाते। मच्छर न उड़ते तो फिर गाय, भैंस दूध देते समय लात उठा लेती थी, कभी पूंछ मार देती थी। इसलिए दुहते समय सामने चरही में चारा और पीछे से धुंवा करना अनिवार्य था। छोटा बछड़ा होता तो उसे गाय के मुंह के सामने पकड़ कर रखते, वह पूरा समय उसे चाटती रहती। बड़े बछड़े को खूंटे में बांधना पड़ता था क्योंकि वह कभी भी जोर लगाकर थन की ओर भाग सकता था। इससे बाल्टी के दूध और दूध दुहने वाले दोनों के लिए खतरा उत्पन्न हो सकता था। दूध दुहकर बाबा हमें फिर एक गिलास दूध देते और हम दूध की मूंछे दिखाते हुए अम्मा, अजिया के पास पहुंच जाते।

रात का भोजन सामान्यतः सब्जी रोटी होती। सब्जी न होने पर सुखाकर रखी हुई बड़ी बनती। तीखी सब्जी बनने पर हम दूध रोटी खाकर संतोष कर लेते। भोजन करने के पश्चात कभी अम्मा से चुड़ैल और परी वाली कहानी सुनते । अम्मा के नाना के गांव धनेछे (सुल्तानपुर) की अजीबोगरीब घटनाएं सुनते। वह अपनी सखियों के किस्से बताती और छह कक्षा पढ़ने के लिए उन्होंने छह विद्यालय क्यों बदले, यह भी वह हमें विस्तार से हंसते हुए बताती।

पापा के पास लेटते तो वह हमें दुनिया भर के किस्से, लालगंज की ताजा घटनाएं, उनके कॉलेज की कोई रोचक कथा या बोर्ड की परीक्षा पुस्तिका में छात्रों द्वारा लिखे गए तमाम मनुहार, गीत, गाने, मन की बात सुनाते।

फिर पापा कहते, इस हाथ ले, उस हाथ दे। मैंने तुम्हें कहानी सुनाई, तुम मेरे पैर दबाओ। हिसाब बराबर।
और
हम हिसाब बराबर कर पापा से छपट कर सो जाते थे। अगली सुबह फिर धमाल मचाने के लिए।

विनय सिंह बैस, लेखक/अनुवाद अधिकारी

(विनय सिंह बैस )
ग्राम-बरी, पोस्ट- मेरुई, जनपद-रायबरेली

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