
नई दिल्ली। होली पर फिल्माये गए किसी भी गीत का मूल भाव है- मस्ती, धमाल, शोखी, शरारत, प्यार, मनुहार, इनकार और इकरार। होली आने वाली है तो आज होली पर फिल्माए गए तमाम बॉलीवुड गीत देख रहा था। सुनने में सभी गीत मस्ती भरे, कर्णप्रिय लगते हैं क्योंकि प्रत्येक गीत का अपना सुवाद है, अपना भाव है, अपना आनंद है। लेकिन जैसे ही ‘नदिया के पार’ फ़िल्म का…
“जोगी जी धीरे-धीरे,
नदी के तीरे-तीरे,
कोई ढूंढे मूंगा,
कोई ढूंढे मोतिया,
हम ढूंढे अपनी जोगनिया को,
जोगी जी ढूंढ के ला दो,
जोगी जी हमें मिला दो।”
सुना तो ऐसे लगा जैसे वर्षों से मैं यही तो खोज रहा था। कई बार यह गीत पहले भी सुन चुका हूं लेकिन हर बार यह गीत उतना ही नया, उतना ही ताजा और उतना ही अपना लगता है जितना पहली बार सुनते समय लगा था। तमाम होली गीतों को सुनने के बाद यह गीत सुनकर ऐसा लगता है मानो शक्कर खाते-खाते किसी ने देसी गुड़ की ताजी भेली परोस दी हो। जैसे स्लाइस, माजा पीते-पीते अचानक से जीभ ने पेड़ से पके आम का स्वाद चख लिया हो। मानो अमूल, मदर डेयरी का बटर खाते-खाते एकदम से अजिया ने दुधहंडी की हंडियां से मथकर निकाला गया नैनू जबान पर रख दिया हो।
इस पूरी फ़िल्म में कुछ तो ऐसा है जो वर्षों से मुझे सम्मोहित किए हुए है। उस पर भी इस गीत ने मुझ पर जादू सा कर रखा है। ऐसा जादू जो वर्षों बाद आज भी मेरे सर चढ़कर बोलता है। इस गीत में कुछ तो ऐसा है जो सीधे मेरे दिल को स्पंदित करता है। मैं इसे सुनते ही दिल्ली से बैसवारा पहुंच जाता हूँ। इस गीत को देखते ही मैं फिर जवान हो उठता हूँ, युवा हो जाता हूँ।
मुझे लगता है इस गाने की शूटिंग के लिए निर्देशक ने रीटेक पर रीटेक नहीं किये होंगे। जो जैसे नाचा होगा, जैसे एक्टिंग की होगी, वैसे ही इस गीत को फिल्मा दिया गया होगा। तभी तो इस गाने में सब कुछ इतना सहज, सरल, स्वाभाविक लगता है। सारा कथानक, सारे पात्र इतने नेचुरल लगते हैं जैसे अपने से हों। खपरैल के घर, छप्पर, आंगन, दुवार, बैकग्राउंड में गाय, भैंस, बछिया देखकर लगता है यही तो अपना गांव है, यही तो अपनी जन्मभूमि है, यही तो अवध है, यही अपना बैसवारा है; बस काल चक्र को 30-40 बरस पीछे ले जाना होगा।
इस गीत के नायक-नायिका बिल्कुल लौकिक, देसी से लगते हैं। न मेकअप से पुती अधनंगी नायिका है, न इंजेक्शन लगाकर सिक्स पैक बनाया हुआ पचास बरस का अधेड़ नायक। दोनों ही पड़ोस में दिखने वाले तमाम युवक-युवतियों से दिखते हैं। उनका पहनावा, उनकी बातचीत, उनका रहन-सहन, उनकी अदाएं सब जानी पहचानी सी लगती है।
नायिका साधना में गांव की किसी नवयुवती सुलभ मासूमियत, चंचलता, शर्मीलापन, सौंदर्य है तो नायक सचिन में ठेठ गंवईपन, निर्दोष अल्हड़पन झलकता है। मैं सोचता हूँ साधना तो अपने पड़ोसी जिले कानपुर की थी, उनके लिए इस फ़िल्म में अवधी बोलना इतना मुश्किल न रहा होगा लेकिन मराठी सचिन ने जो अवधी पुट पकड़ा है, वह सचमुच काबिले तारीफ है, दिल को छूता है।
बैसवारा (अवध) के गांवों में अभी भी औरतें अपने समूह में और मर्द अपने गुट के साथ होली खेलते हैं। देवर-भाभी, जीजा-साली आदि को जरूर एक दूसरे पर रंग डालने की पूरी छूट और अधिकार होता है। हां, कोई नात-रिश्तेदार हुआ तब तो उसे रंगने की सामूहिक जिम्मेदारी महिलाओं पर ही होती है। यह कार्य सरेआम डंके की चोट पर किया जाता है। अगर मेहमान कोरा-कोरा निकल गया तो यह पूरे मुहल्ले की नाकामी होती है, मेहमान के लिए भी यह बेइज्जती ही है कि होली पर भी उस पर किसी ने रंग नहीं डाला।
चंदा-गुंजन, सूरज-संध्या जैसे तमाम प्रेम पुजारी भी इस गीत की पंक्तियों-
“बिना उसे रंग लगाए,
यह फागुन बीत न जाये”
पर मन ही मन अमल करने की योजना बनाते रहते हैं। उनके मन तो एक दूसरे के रंग में पहले ही रंगे हुए होते हैं, तन में रंग लगाने का अवसर वे पूरे फागुन खोजते रहते हैं।
इस गाने के एक दृश्य में नायक का ‘जोगी’ में अपनी नायिका का रूप देखना वही समझ सकता है जिसने अपने जीवन के किसी मोड़ पर किसी को टूटकर प्यार किया हो, किसी को अपने से भी अधिक चाहा हो। जिसको उम्र के किसी पड़ाव में कॉपी- किताबों, खेत-बागानों , हीरोइन-नायिकाओं, धरती-आकाश, हवा-पानी सभी में अपनी प्रेमिका ही दिखी हो। उस प्रेमकाल में जागते समय उसके सिवा उसे कुछ न दिखाई देता था, न किसी का कहा हुआ सुनाई पड़ता था। सपनों में भी उसके सिवा कुछ भी नजर नहीं आता था।
मैं अमूमन सिनेमा नहीं देखता, थिएटर की छोड़िए, टेलीविजन पर भी नहीं देखता। परंतु –
“प्रेम का रोग लगा हमको,
कोई इसकी दवा यदि हो तो कहो?”
इस प्रश्न का उत्तर मैं ‘जोगी’ जी से बार-बार पूछना चाहूंगा। इस गीत को मैं ताउम्र बिना कुछ खाये-पिये, सांस रोके हुए एकटक देखना चाहूंगा। इस गीत से हमारे दिल के तार जुड़े हैं, यह गीत हमारे करेजे में बहुत गहरे तक उतर गया है।
(विनय सिंह बैस)
‘जोगी जी’ के रस में आकंठ डूबे हुए

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