विनय सिंह “बैस” की कलम से- होली

“होली आयी रे कन्हाई, रंग छलके, सुना दे जरा बांसुरी।”

नई दिल्ली। कहने को तो होली फागुन मास की पुन्नवासी (पूर्णिमा) को मनाई जाती है लेकिन इसके रंग प्रकृति में, माहौल में और तन मन में महीनों पहले से छलकने शुरू हो जाते थे। इसीलिए होली की बांसुरी बजते ही बैसवारा के बरी गांव में फाग शुरू हो जाता था। सांझ होते ही बच्चे, बड़े, बूढ़े शीतला माता के चबूतरा के पास इकट्ठा होते। फगहा (फाग गाने वाले) मां का आशीर्वाद लेते फिर ढोल, नगाड़े के साथ फगुआ की सस्वर शुरुआत प्रभु श्री राम को समर्पित इस होली गीत से करते :-

“अवध में होली खेलैं रघुवीरा।
ओ केकरे हाथ ढोलक भल सोहै,
केकरे हाथे मंजीरा।
राम के हाथ ढोलक भल सोहै,
लछिमन हाथे मंजीरा।
ए केकरे हाथ कनक पिचकारी
ए केकरे हाथे अबीरा।
ए भरत के हाथ कनक पिचकारी
शत्रुघन हाथे अबीरा।”

अब फगुआ गाने वालों की टोली गांव के एक-एक दरवाजे-दरवाजे जाकर बैसवारा के जननायक राणा बेनी माधव का गुणगान कुछ यूं करती :-
“राना भयो मर्दाना अवध मा -2
हां…. हे राना भयो मर्दाना -2
अवध मा…….…
पहिलि लड़ाई भय बक्शर मा सेमरी के मैदाना।
उहां से आए के पुरवा जीतेव तबै लॉर्ड घबराना।।
अवध मा……
नक्की मिले मान सिंह मिलिगे मिले सुदर्शन काना।
राना साहेब कबहू ना मिलिहैं चही सीस उडि जाना।।
अवध मा……”

होली हो और कृष्ण कन्हैया का नाम न आये। फगुआ हो और बिरज को बिसरा दिया जाए, ऐसा संभव ही नहीं है।
होली का मतलब ही है सारे रंग, सारे रस। इसलिए वीर रस के बात फिजाओं में श्रृंगार रस कुछ यूं बरसता :-
“आज बिरज में होली रे रसिया,
आज बिरज में होली रे रसिया,
होली रे रसिया, बरजोरी रे रसिया।
उड़त गुलाल लाल भए बादर,
केसर रंग में बोरी रे रसिया।
बाजत ताल मृदंग झांझ ढप,
और मजीरन की जोरी रे रसिया।
फेंक गुलाल हाथ पिचकारी,
मारत भर भर पिचकारी रे रसिया।”

फगुआ गाने वाले मस्तानों की यह टोली जिस दरवाजे पहुंचती, उस घर से मस्तानों को और मस्त करने के लिए भांग मिली हुई ठंडई बड़े-बडे गिलासों में भरकर आ जाती। बच्चों के लिए बताशा, गुड़ आदि का प्रबंध रहता। इस दौरान अबीर, गुलाल लगाकर लोग एक दूसरे का अभिवादन करते। समान वय के लोग गले मिलते, छोटे उम्र के लोग बड़ों का पैर छूकर आशीर्वाद लेते। रोज देर शाम तक यह जश्न चलता। पूरे फागुन के महीने बरी गांव फगुआ और भांग की मस्ती में डूबा रहता।

फागुन की पूर्णिमा के दिन लोग गांव में यज्ञशाला के पास नियत स्थान पर पहले से एकत्रित उपलों, लकड़ियों के ढेर से बनी होली के पास जमा होते। लोग घरों से लाए हुए विभिन्न आकार-प्रकार के बल्लों (गोबर से बने) को 5,7, 9 की संख्या में होली को समर्पित करते। फिर शुभ मुहूर्त में होलिका दहन होता। लोग जाने अनजाने में हुई तमाम गलतियों के लिए होली की पवित्र अग्नि से क्षमा मांगते और फिर नए अनाज यानि गेहूं की बालियों को भूनकर अपने आराध्य को अर्पित करते और प्रसाद स्वरूप घरवालों को बांटते। होली की पवित्र अग्नि लोग कंडों (उपलों) में रखकर घर भी ले जाते ताकि महिलाएं भी होली तापकर पुण्य अर्जन कर सकें।

होलिका दहन के अगले दिन अर्थात चैत्र मास की प्रतिपदा को लोग रंगों वाली होली खेलते। होली के रंग में रंगकर कुछ ही समय के लिए सही लेकिन धनी-निर्धन, काले-गोरे, ऊंच-नीच, बालक-वृद्ध के बीच की दीवार टूट जाती थी। महीनों से किसी बात से आपस में मुंह फुलाए लोग आपसी मनमुटाव भूलकर एक दूसरे को रंग लगाते और गले मिलते।

होली की पवित्र अग्नि में जाने अनजाने हुए तमाम अपराध स्वाहा हो जाते तो अगले दिन होली के चटक रंगों में रिश्तों, संबंधों की सारी कलुषता धुल जाती। भावनाएं पुनः धवल हो जाती तथा मन निर्मल और निष्पाप हो जाता।

(विनय सिंह बैस)
बैसवारा के बरी गांव की होली याद करते हुए।

विनय सिंह बैस, लेखक/अनुवाद अधिकारी

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