
रायबरेली। आधुनिक और भारी भरकम मशीनों वाले इस समय की तो खैर क्या ही बात करूं लेकिन आज से 25-30 वर्ष पहले तक धान की फसल के साथ यह अच्छा यह था कि खेत से कटाई, खलिहान में धान पीटकर पूरा (पुआल) और धान को अलग करने के बाद धान को घर तक पहुंचाने का कार्य करने के बाद ही लौनी (मजदूरी) दी जाती थी।
लेकिन जहां तक मुझे याद है गेहूं की फसल के साथ ऐसी सुविधा कभी नहीं रही है। पहले भी लॉक (गेहूं की पकी हुई फसल) खेत से काटकर उसके बोझ बनाकर उन्हें खलिहान तक पहुंचाने की ही जिम्मेदारी मजदूरों की होती थी। मजदूर अपनी लौनी खेतों में ही ले लिया करते थे।
खलिहान में गेहूं के बोझ पहुंचने के बाद उसे मड़ाई करने का कार्य किसान को खुद ही करना पड़ता था।
मैंने देखा तो नहीं बस सुना है कि 70 के दशक में लॉक को खलिहान में गोलाकार फैला दिया जाता था और फिर उसके ऊपर बैल चलते थे, पीछे से किसान उन्हें हांकता रहता था। बैल के खुरों से धीरे-धीरे लॉक कटती जाती थी। फेरे में आने वाली लॉक के कट जाने के बाद किनारे पड़ी लॉक को बैल के फेरे वाले रास्ते में रख दिया जाता था। अब यह लॉक भी धीरे-धीरे महीन होने लगती थी। लॉक के पूरा महीन होने और भूसा बनने में महीनों लग जाते थे।
भूसा बनने के बाद पांचा (भूसा समेटने या बोरों, झाल आदि में भरने का यंत्र जिसमें तीन डंडे होते थे) से इसे एक स्थान पर एकत्र करके फिर बोरी से बनी पल्ली में भर के इसे भुसैला में भर दिया जाता था। इस दौरान अगर इंद्रदेव कुपित हो गए, जरा सी भी बारिश हो गई तो यह समय और बढ़ जाता। कई बार ज्यादा बारिश होने पर खलिहान या खेत मे पूरी फसल ही नष्ट हो जाती थी।
मँड़ाई के दौरान बैल कभी गोबर करने की कोशिश करते तो उसे कुछ समय के लिए मँड़नी से बाहर निकाल लिया जाता। अगर मँड़नी में बैल गोबर कर भी देते तो उतने स्थान की लॉक निकालकर बाहर रख दी जाती। सूख जाने पर गोबर हटाकर उसे फिर से मँड़नी में डाल दिया जाता। बैल के गोबर से न भूसा अपवित्र होता था और न ही गेंहू।
80 का दशक आते-आते किसान कुछ एडवांस हुए और नई युक्ति लगाई। अब वह बैलों के पीछे एक सरावनि (लकड़ी का मोटा पटरा) बांध देते थे। इससे बैल के खुरों से तो गेहूं की मड़ाई होती ही थी, साथ ही पीछे बंधे पटरे के कारण यह कार्य अपेक्षाकृत कुछ जल्दी हो जाता था। लेकिन इसमें भी महीनों लगते थे।
90 के शुरुआती दशक में कुछ बड़े किसानों के घरों में गेहूं की मड़ाई करने की एक मशीन आ गई थी। इस मशीन में नीचे चार दांतेदार पत्तियां लगी रहती थी और ऊपर एक आदमी के बैठने की जगह होती थी। इस मशीन में बैलों को आगे नाध दिया जाता था और वह मंडनी के ऊपर चलते थे।
यह वाली मड़ाई मैंने खुद भी की है। इसमें बड़ा आनंद आता था। स्कूलों में उस समय गर्मी की छुट्टियां भी रहती थी इसलिए हम भागकर गांव जाते थे कि मशीन के ऊपर बैठने और बैल हांकने का मौका मिलेगा। इस मशीन के आ जाने से मड़ाई का कार्य कुछ पक्षों में होने लगा था।
90 के दशक के उत्तरार्द्ध में थ्रेशर की एंट्री हो चुकी थी। अब डीजल इंजनों से चालित इन थ्रेशर से गेहूं की फसलों की मड़ाई का कार्य पहले की अपेक्षा बहुत कम समय में होने लगा था। इससे मेहनत और समय दोनों बचता था। अगर मौसम अनुकूल रहे, इंद्र देवता कुपित न हो तो मड़ाई का कार्य कुछ हफ्तों में आसानी से हो जाता था।
बाद में बिजली चालित थ्रेशर आए। फिर उनकी भी किलोवाट क्षमता बढ़ती गई। पहले दो किलोवाट, फिर पांच, फिर दस किलोवाट वाले मोटर थ्रेशर को चलाने लगे। इसके कुछ ही समय बाद ट्रैक्टर से चलने वाले बड़े-बड़े थ्रेशर आए जो कुछ ही घंटे में पूरी गेहूं की फसल की मड़ाई कर दिया करते थे।
बस फसल को काटकर खलिहान तक लाना होता था। तत्पश्चात खेत मे ही ट्रैक्टर और थ्रेशर पहुंचने लगे। खेत मे ही गेंहू काटो, वहीं पर मड़ाई हो जाएगी। ट्रेक्टर ट्रॉली से अनाज भी तुरत-फुरत घर या मंडी पहुंच जाएगा।
अब तो खैर गांव-गांव तक 5G आ गया है, प्रो मैक्स का जबाना है। ऐसी कंबाइन मशीन आई है जो खेत से ही फसल काट लेती है और गेहूं अलग कर देती है। किसान चाहे तो मशीन से काटने के बाद नीचे बच गई पराली को भूसा बनाने वाली मशीन भी आ गई है। अब इस कंबाइन मशीन से एक बीघे गेंहू की कटाई मात्र 15 मिनट में हो जाती है।
जिस गति से मशीनीकरण हो रहा है, अब तो एआई भी दस्तक दे चुकी है। इसलिए हो सकता है आगामी कुछ वर्षों में गेहूं की कटाई, मड़ाई और फसल को घर या मंडी पहुंचाने का कार्य दो मिनट में यानि मैगी बनने से पहले पूरा हो जाये। तब किसानों के पास समय ही समय होगा।
और – वे इस समय का सदुपयोग खेत, खलिहान में फोटो सेशन कराने और रील बनाने के लिए कर सकते हैं।
(विनय सिंह बैस)
फोटो खिंचाने के लिए बने हुए किसान
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