विनय सिंह बैस की कलम से : बचपन वाली दीपावाली!!

रायबरेली। बचपन की दीपावली का मतलब छोटी दीपावाली, बड़ी दीपावली और उसके बाद गंगा स्नान (कार्तिकी) की तैयारी हुआ करता था। वर्तमान रूप में धनतेरस कम से कम हमारे गांव में तो उस समय तक नहीं मनाया जाता था। आरोग्य के देवता भगवान धनवंतरी शायद टेलीविजन और बाजारीकरण के प्रभाव के कारण बाद में धन, स्वर्ण और नए वाहनों के देवता बन गए।

उन दिनों दीपावली से लगभग 15 दिन पहले से ही इस त्यौहार की तैयारी शुरू हो जाती थी। सबसे पहले कच्चे लेकिन बहुत बड़े घर की पुताई के लिए दुकनहा गांव से बैलगाड़ी में भरकर सफेद मिट्टी लाई जाती थी और उस मिट्टी से घर के दरवाजे की पूरी दीवार पोती जाती थी। इस मिट्टी से पोतने के बाद दीवारें चांदी सी खिल उठती थी। पूरे घर के अंदर भी खूब जमकर साफ-सफाई की जाती थी।

घर के जो सदस्य शहर में रहते थे, उनका भी आगमन शुरू हो जाता था। हम बच्चों के लिए दीपावली का त्यौहार किसी वरदान से कम नहीं होता था। क्योंकि चाचा, भैया, बुआ आदि से हम किसी न किसी बहाने कुछ पैसे ऐंठ लिया करते थे और उन पैसों से अपने लिए छुरछुरी, छोटा तमंचा, उसमें चुटपुट करके दगने वाली रील की डिब्बी, दीवार पर फेंककर मारे जाने वाले आलू बम/ मिर्ची बम खरीद लिया करते थे।

चिटपुटिया को पत्थर से मारकर जमीन पर भी फोड़ सकते थे। कुछ साहसी बच्चे उसे सीधे जमीन पर रगड़कर पिट्ट-पिट्ट की आवाज निकाल लिया करते थे। एक सांप की टिक्की भी आती थी जो जलाने पर उसकी राख काले सांप जैसा आकार धारण कर लेती थी।

जब हम कुछ बड़े हुए तो तमंचे का साइज भी कुछ बड़ा हो गया था। अब उसमें नली भी हुआ करती थी तथा चुटपुट करके दगने वाली रील की जगह इस बड़े तमंचे में एक बार मे प्रयोग होने वाली गोली (काग) का प्रयोग होने लगा था। दीपावली के इन दो-चार दिनों हम अपने को किसी सैनिक या दस्यु सम्राट से कम न समझते थे और ढूंढ ढूंढ कर निशाने लगाया करते थे।

उस समय हमें इतनी समझ न थी इसलिए ज्यादातर निशाने कुत्तों पर लगाकर उन्हें दौड़ाते और परेशान करते थे। यह तो अच्छा था कि हमारे गांव में उस समय कोई डॉग लवर नहीं था, अन्यथा हम बचपन में ही जेल की हवा खा लेते।

दीपावली के दिन गाय के गोबर से आंगन की लिपाई की जाती थी। ऐसा लगता है कि उस पुताई और लिपाई की विशिष्ट गंध अभी भी नथुनों में भरी हुई है। शाम को मिट्टी की बनी लक्ष्मी-गणेश की मूर्ति का पूजन होता था और उसके बाद चिरैया, गट्टा, लाई आदि का प्रसाद तथा मिठाई खाने को मिलती थी। पूजा के बाद सभी खेतों में दियाली रखी जाती थी।

घर के सामने दाहिने ओर स्थित भगवान शंकर के चबूतरे, बैलों तथा गाय-भैंसों की चरही, नाद, मुहल्ले के सामूहिक कुंवे, आफर (खलिहान), घर के पीछे स्थित नल, चारा काटने वाली मशीन, गेंहूँ पीसने वाली बेकार पड़ी चक्की, कुंवें से खेतों की सिंचाई हेतु पानी निकालने वाले रहट, गन्ना पेरने वाले कोल्हू, घूर जिसमें जानवरों का गोबर फेंका जाता था तथा कृषि कार्य में प्रयोग होने वाले औजार जैसे हंसिया, खुरपा, फरुआ आदि पर भी दिए रखे जाते थे।

घर के दरवाजे, पिछवारे, हर ताख, खिड़की और छत पर दिये रखे जाते या मोमबत्ती जलाई जाती थी। इस काम में हम बाबा, पापा, चाचा का कुछ सहयोग कर दिया करते थे। शाम गहराते-गहराते पूरा घर, मोहल्ला और गांव दीयों की रोशनी से जगमगा उठता था।

दीपावली की शुभ तिथि की रोशनी में पढ़ना विद्यार्थियों के लिए अत्यंत शुभ और आवश्यक माना जाता था। ऐसी मान्यता थी कि जो विद्यार्थी इस दिन पढ़ाई करेगा, उसका पूरे साल पढ़ाई में खूब मन लगेगा।

उस समय आज की तरह का जानलेवा प्रदूषण नहीं हुआ करता था, गांवो में तो बिल्कुल भी नहीं। इसीलिए दीपावली के दिन हम जी भरकर पटाखे फोड़ते थे। किसी सुप्रीम कोर्ट या सरकार का कोई प्रतिबंध भी नहीं होता था। हां, कभी असावधानी से पटाखे फोड़ने या जानवरों को परेशान करने पर बड़ों की डांट जरूर मिल जाया करती थी।

हमारे मोहल्ले में एक राठौर फूफा थे (अभी भी हैं) जो मेरे दरवाजे से अपने दरवाजे के बीच बिना गांठ वाला एक मजबूत धागा या रस्सी बांधकर उसमें आग उगलती रेलगाड़ी दौड़ाया करते थे। यह दीपावली की रात की सबसे महंगी, आकर्षक और अंतिम आतिशबाजी हुआ करती थी।

दीपावली के दिन खूब स्वादिष्ट भोजन बनता था। पूरी/कचौड़ी, सब्जी और खीर बनना तो लगभग तय हुआ करता था। हम सभी बच्चे खूब भरपेट भोजन करते और जल्दी ही सो जाया करते थे क्योंकि सुबह जल्दी उठना होता था। लेकिन सोने से पहले उसी रात दीये में पारा हुआ काजल आंख में लगाना न भूलते थे क्योंकि ऐसा माना जाता था जो दीपावली के दिन काजल नहीं लगाता था, वह अगले जन्म में छछूंदर बनेगा।

दीपावली के अगले दिन हम सब बच्चे एक दूसरे से जल्दी सोकर उठने की कोशिश करते थे क्योंकि पहले उठने वाले बच्चे को ही सबसे ज्यादा दियाली मिलती थी। जिसके पास सबसे ज्यादा दियाली इकठ्ठा हो जाती, वह अपने को उस दिन का शहंशाह समझता था। फिर हम उन दियाली से जीत-हार का खेल खेलते थे। खेल कुछ इस तरह होता था- ‘दियाली को मिट्टी के एक कूरा (ढेर) में गाड़ दिया जाता।

दूसरा वैसा ही मिट्टी का ढेर उसी के बराबर बनाकर खाली छोड़ दिया जाता। जिस खिलाड़ी की बारी होती, वह किसी एक ढेर पर उंगली रखता और अगर उसकी किस्मत अच्छी होती तो दियाली उसे मिल जाती थी, नहीं तो वह दियाली दूसरे खिलाड़ी की हो जाती थी। इस प्रकार यह खेल एक खिलाड़ी के सारे दिये जीतने या घरवालों के डांटने/ पीटने तक चलता रहता था।’

इन दियों का हार-जीत का खेल खेलने के अलावा एक उपयोग यह होता कि हम लोग इन दियों को पानी में भिगोकर मुलायम करते तथा सुआ से इसमें तीन तरफ से छेद करके इसे तराजू बनाकर खेला करते थे। हालांकि यह दियों से हार-जीत का खेल और तराजू बनाना कुछ ही दिनों की मौज हुआ करती थी। दो-चार दिनों बाद दीये टूट जाते या फिर उनसे मन भर जाता था, उनके प्रति आकर्षण खत्म हो जाता था।

लेकिन तब तक गंगा स्नान हेतु गेंगासों जाने के लिए लढ़ीया (बैलगाडी) को औङ्गने (धुरी में काला तेल लगाने), उसके पहियों में हाल (लोहे की रिंग) चढ़वाने, बैलों की सींग में तेल लगाने, उन्हें साफा, रंगीन झूल आदि पहनाकर सजाने-संवारने की तैयारी होने लगती।

(विनय सिंह बैस)
ग्राम-बरी
पोस्ट-मेरूई
जनपद-रायबरेली (उत्तर प्रदेश)

विनय सिंह बैस, लेखक/अनुवाद अधिकारी

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