नई दिल्ली। भारत की वायुसेना सदैव अनुशासन, तकनीकी श्रेष्ठता और राष्ट्रसेवा की प्रतिमूर्ति रही है। लेकिन इस गौरवपूर्ण संस्था के भीतर भी कुछ समय पूर्व तक धार्मिक आस्था और सांस्कृतिक प्रतीकों को लेकर भेदभावपूर्ण रवैया अपनाया जाता था- विशेषकर हिंदू परंपराओं के प्रति। मैं स्वयं एक वायुसैनिक के रूप में इस कटु सच्चाई का भुक्तभोगी रहा हूँ।
कुछ वर्ष पूर्व तक जब कोई वायुसैनिक माथे पर तिलक लगाता या हाथ में कलावा बांधता था, तो उसे दकियानूसी, पाखंडी और “अनुशासनहीन” कहकर सार्वजनिक रूप से प्रताड़ित किया जाता था। उसे एयरफोर्स एक्ट और यूनिफॉर्म की पवित्रता के नियमों का हवाला देकर चुप कराया जाता था। यह विडंबना ही थी कि ये नियम केवल हिंदू सैनिकों पर लागू होते थे।
दूसरे धर्मों के अनुयायियों को दाढ़ी रखने, पगड़ी पहनने और अपने धार्मिक प्रतीक पहनने की छूट थी। लेकिन जब एक हिंदू सैनिक अपनी आस्था के प्रतीक धारण करता था, तो उस पर अनुशासन का डंडा चला दिया जाता। यह एकतरफा रवैया न केवल अपमानजनक था, बल्कि वायुसेना जैसी गौरवशाली संस्था की धर्मनिरपेक्षता का भी उपहास करता था।

इस पृष्ठभूमि में आज जब मैं ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ल को भारत के ऐतिहासिक अंतरिक्ष मिशन पर जाते हुए देखता हूँ- माथे पर गर्व से तिलक लगाए हुए- तो मेरी आँखें नम हो जाती हैं और हृदय गर्व से भर उठता है। यह केवल एक व्यक्तिगत चयन नहीं है, यह एक संस्थागत परिवर्तन की प्रतीकात्मक घोषणा है। यह इस बात का संकेत है कि अब वायुसेना हर सैनिक की सांस्कृतिक पहचान का सम्मान करना सीख रही है।
यह दृश्य न केवल मेरे जैसे हजारों पूर्व सैनिकों के लिए एक आत्मिक सुकून का क्षण है, बल्कि देश के उन युवाओं के लिए भी प्रेरणा है जो वर्दी पहनना चाहते हैं, पर अपनी आस्था को त्यागे बिना।
भारत की वायुसेना बदल रही है। अब वह केवल तकनीकी रूप से नहीं, बल्कि वैचारिक रूप से भी सशक्त और समावेशी बन रही है। यह बदलाव केवल सेना तक सीमित नहीं है- यह भारत के बदलते समाज, उसकी आत्मा और आत्मगौरव का भी प्रतीक है।
और जब यह बदलाव किसी शुभ संकेत के रूप में सामने आता है, तो वाकई मेरी छाती 56 इंच की हो जाती है।
(विनय सिंह बैस)
एयर वेटेरन

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