
हावड़ा । हाँ जी! महुआ चुनने के लिए उपयुक्त समय भोर-भिनसरिया का ही होता है, जब सम्पूर्ण प्रकृति प्रभाती शीतल वसंती बयार में मधुर स्वप्निल निद्रा में लीन रहती है। प्रभाती समीर निद्रालस-भाव से श्रांत कहीं बैठकी कर झपकी ले रहा है। वृक्षों पर अपने-अपने घोंसलों में विहंग-वृद अभी-अभी जागे हैं और अपने परिजन के साथ मधुर चहचहाती वार्तालाप में लीन रहे हैं। गेहूँ के कटे फसल अभी खेतों में ही सूखने के लिए पड़े हैं। कभी-कभी पास के बिलों में से एक-दो चूहे अपनी मूँछे को हिलाते हुए और अपनी आँखों को इधर-उधर मटकाते हुए झट से निकल कुछ दानों को अपने मुँह में दबाए, तुरंत ही बिलों में वापस घुस जा रहे हैं।
तो गिलहरियाँ भी कम थोड़े ही हैं। वे भी ‘टिक’-‘टिक’ की कुछ तेज आवाज के साथ अपनी पूँछ को हर बार उठाते, कभी खेतों में, तो कभी पास के पेड़ों पर बड़ी फूरती के साथ भाग दौड़ कर रहे हैं। पास में बहती सलिला प्रभाती अलस भाव से शांत मंथर गति से प्रवाहमयी है। चतुर्दिक नि:शब्दता है। फिर विपिन बीच की निस्तब्धता तो और भी भयानक प्रतीत हो रही है। प्रकृति में व्याप्त इस नीरवता को शायद कोई आगे बढ़कर भंग करने का दोष अपने माथे पर न लेना चाह रहा है। अतः सभी मौन और शांत हैं।
परंतु प्रकृति की इस निस्तब्धता को भंग करने का सभीत प्रयास महुआ के भारी-शीतल, रसदार-गुद्दादार, धवल-पीताभ बड़े-बड़े मोटी के समान गोलक फूल ‘टप’-‘टप’ की नियमित मंद ध्वनि से करता जान पड़ता है। बड़ी ही अजीब बात है। अपने छोटे-छोटे रसदार गोलक फूलों के मंद ‘टप’-‘टप’ से ही महुआ प्रकृति की गंभीर निस्तब्धता को तोड़ने का दुस्साहस कर रहा है। अन्यथा, अधिकांश फूल तो ऐसे ही ‘गुपचुप’ भूमि पर गिर पड़ते हैं, कि किसी को थाह भी न लग पाता है। ऐसा दुस्साहस महुआ ही कर सकता है। ठीक भी है, आखिर किसी को तो, आगे बढ़ क्रांति का मशाल अपने हाथों में थामना ही पड़ता है। बाद में इस मंद ‘टप’-‘टप’ की शांत ध्वनि को ही सारा जग साथ देगा।
छोटी-सी अग्नि कणिका ही तो, विराट दहन के विराट स्वरूप को निर्मित करती है। पहले से ही गिरे-बिखरे सूखे पत्तों पर, जब महुआ के फूल गिरते हैं, तब वे विचित्र मधुर ध्वनि पैदा करते हैं। शायद अपनी ‘टप’-‘टप’ की ध्वनि से वे गोलक फूल उन सूखे पत्तों को चीखने-चिल्लाने से मना कर उन्हें ‘चुप’ रहने के लिए ‘चुप’-‘चुप’ कह रहे हो। तभी तो, सभी चुप और मौन रहकर उसके ‘टप’-‘टप’ के मधुर गीत को सुन रहे हैं। लेकिन इस भोर-भिनसरिया की झुटपुटे में दूर से आती ओझिल कुछ बालिकाओं के सुरबद्ध लयात्मक मधुर स्वर-लहरिया वातावरण में लहराने लगी है, –
‘महुआ बीने सखि, चल भोर भिनसरिया,
टप टप गिरे जइसे सावन के बदरिया।’
यह सुर-बद्ध लयात्मक मधुर स्वर-लहरिया क्रमशः तेज होती जा रही है और उसके साथ ही झुटपुटे में अब तक अगोचर रहीं गीत-स्रोता बालाएँ खेतों में बनी सुखी कुछ श्वेत पगडंडियों पर कुछ धुंधली और फिर श्यामवर्णी चित्र के रूप में कुछ-कुछ गोचर होने लगी हैं। फिर तो एकदम स्पष्ट हो गई। विविध रंगी चुनरी से माथे को ढके, उसपर छोटी-छोटी टोकरियों को लिये, एक हाथ से उन टोकरियों को थामें और दूसरे हाथ को अपने मधुर मटक चाल के साथ लहराते चार बालाएँ पंक्ति-बद्ध चली आ रही हैं। गमगमाते मीठे सौरभ युक्त महुआ के तले वे सभी आकार पल भर के लिए रुकीं और इधर-उधर भूमि पर देखीं।
आहिस्ते से भूमि पर अपनी-अपनी टोकरियों को रख, इधर-उधर बढ़ने लगीं। उनके कोमल चरण-चाप से गिरी-सुखी पत्तियों पर ‘टप’-‘टप’, ‘चर’-‘चर’, ‘टप’-‘टप’, ‘खर’-‘खर’ के साथ मर्मर और खड़खड़ की सम्मिलित ध्वनि से वातावरण कुछ शोरमयी होने लगा। शायद सोई हुई, प्रकृति जागने लगी है, या फिर सबको जगाने लगी है। उनके बीच ही उन बालिकाओं के मधुर संगीतमय वही गीत ध्वनित हो रही है-
‘हाली हाली बीन सखि मधुर महुअवा।
दौड़ी अइहें पाछे-पाछे जसोदा के दुलरुवा।’
उन कोमल बालाओं के मधुर कोकिला-कंठ से निरंतर निकलते सुर-संगम के हर ताल, हर लय के साथ ही उनकी कोमल शरीरिक चेष्टाएँ संगीत के तारों को छेड़ती प्रतीत हो रही हैं। कुछ बैठकर, तो कुछ झुक कर अपनी कोमल अंगुलियाँ से भूमि और पत्तों पर पड़े हुए महुआ के रसदार-गुद्देदार मोती सदृश गोलक फूलों को झट-झट बीनने लगी हैं। मुट्ठीभर महुआ के रसदार गोलक फूलों से उनकी शंखाकृत हथेलियाँ जल्दी ही भर जातीं, तो वे उन्हें अपनी टोकरियों में डाल देती हैं । फिर वही तन्मयता। पर गीत अनवरत ध्वनित होते ही रह रहे हैं –
‘महुआ बीने सखि, चल भोर भिनसरिया…..।’
अब पूर्व क्षितिज पर धीरे-धीरे लाल-रक्तिम शिशु सूरज अंधकार की चादर से अपना चेहरा निकाले मुसकुराते दिख पड़े हैं। सम्पूर्ण प्रकृति ही उस लालिमा में रंगी दिखती है। महुआ के धवल-पीताभ-रसदार गोलक फूल भी उस लालिमा में अब रक्त-वर्णी दिखने लगे हैं। अंतरिक्ष रूपी विशाल आँगन में दूर-दूर तक रक्त-वर्णी शिशु-मेघ, शायद खेलने निकल पड़े हैं। एक ओर कुछ दूर के ताड़ वृक्षों की कतार और दूसरी ओर बरगद-पीपल-आम्र के सम्मिलि लघु वन रक्तिम अंतरिक्ष को अपने माथे पर उठाए स्थिर-मौन, परंतु मंद-मंद मुसकुरा रहे हैं। उनके बीच मंद ध्वनिमय उड़ते विहग-वृंद किसी विराट चित्र-फलक के सुंदर चित्र-शृंगार ही तो हैं। हलाकी महुआ बीनती बालिकाएँ भी उसी विराट चित्र-पट का एक सुंदर हिस्सा प्रतीत हो रही हैं।
पास के सूखते जलकुंड में बचे जल-राशि में मछलियों की ‘छप’-छप’ की आवाज आने लगी है । इन सभी को महुआ के फूलों के मिठासयुक्त सुगंध मदहोश करने पर तुला हुआ है । कुछ ही समय में वे बालिकाएँ अपनी जानकारी के अनुरूप टपके हुए महुआ के सभी फूलों को बीन ली हैं। पर ‘टप’-‘टप’ की आवाज के साथ ही उनके आगे-पीछे, दायें-बाएँ अब भी महुआ के फूल गिरते ही जा रहे हैं। उन्हें भी वे एक-एक कर बीन ही ले रही हैं। साथ में लहरा रही है, वही स्वर-लहरिया –
‘मंद मंद मुसकाय लगले बरज के नन्दनवा,
महुआ बीने सखि, चल भोर भिनसरिया।’
सखि! अब चलना चाहिए। नहीं तो, दिन भर ये रसदार महुआ के फूल ‘टप’-‘टप’ की ताल पर, एक-एक करके गिरते ही रहेंगे और उन्हें हमें बीनते ही रहना पड़ेगा। घर-आँगन में तो और भी हमारे काज-परोजन है, न। फिर मीठी खुशबू से गमगमाते महुआ से लगभग आधी-आधी भर्ती टोकरियों को अपने-अपने माथे पर संभालतीं, वे जैसे आयी थीं, वैसे ही मटकती हुई वापस लौट चलीं । उनके माथे पर रखी टोकरियों के इर्द-गिर्द कुछ लुब्ध भौरें और मक्खियाँ भी साथ उड़ने लगी हैं। कभी-कभी टोकरियों में बैठ उन महुआ के फूलों का एक अंश भी बन जा रही हैं।
उस ऊबड़-खाबड़ सुनई पगडंडियाँ फिर सज गईं। मंद-मंद शीतल पवन उनकी चुनरी को लहराते हुए स्वयं को, उनके साथ होने का एहसास दिलाने की भरसक कोशिश कर रहा है। पर उस ओर से बेखबर कोमलांगी बालाएँ अपने गीतों में मगन गाती जा रही हैं –
‘अबकी चइतवा में भर-भर टोकरिया,
महुआ बीने सखि, चल भोर भिनसरिया।’
श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक व लेखक,
24, बन बिहारी बोस रोड,
हावड़ा – 711101
(पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com
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