“एक टुकड़ा आसमान” : (कहानी) :– श्रीराम पुकार शर्मा

पुरानी पीढ़ी के निर्बल और दुर्बल लोग नई पीढ़ी से कुछ प्यार पाने की तमन्ना रखते हैं, पर कइयों के जीवन में वह भी नसीब नहीं हो पाता है। दो पीढ़ियों के मध्य ऐसे ही विचारों के अंतर को दर्शाती मेरी कहानी “एक टुकड़ा आसमान” आप विद्वजनों के समक्ष प्रस्तुत है।
एक टुकड़ा आसमान

इतना बड़ा आसमान!’ – घोर आश्चर्य से बोल उठा जीतेश। कल सांध्य उपरांत गाड़ी पहुँची थी। आते ही मकान के अंदर ही रहा और यात्रा से थके होने के कारण जल्दी ही सो गया था। आज खूब सबेरे ही नये परिवेश को जानने की उत्सुकतावश जाग गया। उसके लिए घर के बड़े-बड़े कमरें, बड़े और मोटे-मोटे चौखट-दरवाजें, बड़ा-सा आँगन, आँगन में ही अमरूद और आम के पेड़, अग्निकोण में मिट्टी के बने कई छोटे-बड़े चूल्हें, बड़े-बड़े बाल्टी, ताम्बे-पीतल के चमचमाते वर्तन, पानी के लिए चापाकल, दीवारों पर सेम और लौकी की हरी-भरी लताएँ, बगल के कमरे से रंभाती हुई गाय और उसकी बछिया आदि सब कुछ स्वप्नलोक की भांति अविश्वसनीय लग रहे थे। कोलकाता शहर में ही जन्मा जीतेश इसके पहले जब वह ढ़ाई-तीन वर्ष का था, तब ही वह अपने पैत्रिक गाँव में अपने दादा-दादी के पास आया था। उस समय की कोई बात उसे स्मरण तक नहीं है। अब वह पाँच के आस-पास का है। शहर के ही कोई किड्स स्कूल में नर्सरी कक्षा में पढता है। 

‘दादाजी ! दादाजी ! आपके यहाँ पर इतना बड़ा आसमान है।’ – अपने दादा जी को चौकी पर अखबार में तल्लीन देख कर एक बार फिर आश्चर्यचकित होकर बोला।
‘हाँ बेटा जीतू ! हमारे यहाँ पर बहुत ही बड़ा आसमान है।’ – रमेसर मिस्त्री बड़े ही प्यार भाव से जीतेश को बोले। जीतेश को सभी प्यार से ‘जीतू’ कह कर ही बुलाते हैं।
‘लेकिन दादा जी ! मेरे यहाँ तो आसमान बहुत ही छोटा-सा, इस कमरे भर का ही होता है। इस बार पापा को बोलेंगे कि यहाँ से थोड़ा-सा आसमान अपने साथ कोलकाता भी ले चलो।’ – दादा जी की गंजे खोपड़ी से लेकर मुख के ऊपर बड़े ही शान के साथ तने सफेद मूछें युक्त सूखे चहरे पर खुशियों की एक अजीब-सी चमक झलक गई। प्यार से जीतू के माथे को सहलाया और अखबार को समेट कर अलग ताक पर रख दिया। उसके माथे को बड़े प्यार से चूमा और चौकी से उतर कर खड़े हुए। पैरों में अपने पुराने हवाई चप्पलें लगायें।
‘चलो आज तुम्हें अपने गाँव का बहुत-बहुत, बहुत ही बड़ा और सुंदर-सा आसमान दिखाता हूँ।’ – जीतू की कोमल हथेली को अपने कुछ कठोर हथेली में बड़े ही प्यार से थामें रमेसर मिस्त्री उसी की जुबान की नकल करते हुए या स्वयं अबोध बालक बनते हुए कहे। फिर एक बड़े कमरे को, तब काफी मोटे और ऊँचे चौखट को लाँघ कर पार किये और फिर दोनों बाहर पहुँचे। द्वार पर ही कई बालक-बालिकाएँ खेल रहे थे, अचानक सभी थम गयें और उनकी चकित आँखें इस आगन्तुक ‘जीतू’ को देखने लगीं। मगर पास में लेटा हुआ कुत्ता ‘कजरा’ उन्हें प्रेमपूर्ण नेत्रों से देखा और अपनी पूँछ हिला कर संकेत दिया कि इस आगन्तुक से वह कल रात ही मिल चूका है। अब अजनबी कैसा ? मालिक के घर का है, अतः वह उसके लिए भी प्रिय है। और फिर ‘कजरा’ उनके पीछे हो लिया।
द्वार से लगे ही सरकारी स्कूल का एक बड़ा – सा खुला मैदान था। जिसमें कई बकरियाँ चर रहीं थीं। बकरी के दो छोटे-छोटे बच्चें चरती हुई एक बकरी से दूध पीने की लगातार कोशिश करते, पर बकरी स्थिर ही नहीं रह रही थी। वह तो घास चरने में मगन थी। जीतू अपने दादा जी की हथेली को कस कर रोकते हुए कहा, – ‘दादा जी ! इसको पकड़ो न। हम इसको कोलकाता ले जायेंगे। गोलू, मिंटू और नैना को भी दिखायेंगे।’
कुछ सोच कर दादा बोले, – ‘जा पहले तुम उसको अपने से पकड़।’
जीतू दौड़ा पड़ा उन बकरी के बच्चों के पीछे, पर वे हाथ कहाँ आने वाले थे ? वे और अधिक उछल-कूद कर इधर-उधर भागने लगें। थोड़ी देर में ही जीतू थक गया। दादा जी के हाथ को पकड़ कर कुछ घिघियाते हुए कहा, – ‘दादा जी ! आप पकड़ो न। मुझसे पकड़ में नहीं आते हैं।’
‘अभी नहीं जीतू ! अभी वे अपनी मम्मी के साथ खेल रहे हैं और दूध पी रहे हैं न, अभी उसे छोड़ दो। बाद में पकड़ कर तुम्हारे पास लायेंगे। तुम आसमान देखने आये थे न, यह देखो कितना बड़ा है न, आसमान।’ – अपने कुछ झुर्राए और दुर्बल दाहिने हाथ को ऊपर की ओर उठा कर दिखाते हुए बोले।
‘अरे वाह ! दादाजी ! इतना बड़ा आसमान तो मैंने कभी न देखा था। इधर से उधर तक बहुत दूर तक तना हुआ है। दादा जी ! वह देखो, दूर पर यह आसमान उस दूर के पेड़ के ऊपर टिका हुआ है न। उस पर चढ़ कर आसमान को पकड़ लेंगे। चलो न दादा जी ! चल कर आसमान को पकड़ते हैं।’ – जीतू मचल उठा।
‘हाँ हाँ ! चलेंगे, चलेंगे। पर कुछ खा – पी लो तब चलेंगे।’ – उनकी आत्म प्रसन्नता छिपाए न छिपता था, पर जबरन उसे छिपाए बोले।
‘हाँ दादा जी ! सब कुछ कितना सुंदर लगता है न यहाँ पर!’ – और कुछ जोर दे कर बोला, – ‘पापा को बोल दीजियेगा कि हम कोलकाता नहीं जायेंगे। यहीं पर रहेंगे। आपके साथ रहेंगे। रोज आसमान देखेंगे। रोज इन बकरी के बच्चों के साथ खेलेंगे। रोज आपके साथ खेत में भी जायेंगे।” – जीतू मचल उठा। अपनी हकलाती मीठी बोली में एक साथ बोल दिया।
रमेसर मिस्त्री की आँखें प्रेमवश डबडबा आयीं। काश ऐसा होता ! अपने बच्चों के साथ तो खेले और उनकी तोतली बोली में बोले लगभग उन्हें पचीसों बरस बीत गए। बहुत अरमान था कि उनके बूढ़े हाथ अपने नन्हें पोते-पोतियों को खेलायेंगे, दुलारेंगे। इसी अरमान से उन्होंने अपने बड़े बेटे ‘बिरज’ की शादी कोई 22 बरस में ही कर दी। लेकिन शादी के बाद से ही वह अपनी पत्नी के साथ जो शहर में जा बसा कि वह फिर कर इधर गाँव की ओर न देखा। बस इतना ही उन्हें सुनने में आया कि बड़ी बहु को गोबर-माटी पसंद नहीं है। शहर में कोई फ्लैट में रहते हैं सब लोग। मन मसोस कर रह गया। न तो बिरज ने अपने माँ-बाप को शौक से ही शहर में एक बार भी बुलाया, और न ये लोग ही उसके पास गए। पर उन्होंने ममता के आगे स्वाभिमान को न लाचार होने दिए। फिर अरमान जागे और अपने छोटे लड़के ‘बचन’ की भी शादी कर दी। बहु भी किसी खेतहर घर से आई है । आते ही सभी घरेलू काम-काज अपने हाथों में ले ली। उसके आये अभी कुछ ही महीने हुए थे कि ‘बचन’ को कोलकाता के किसी आफिस में नौकरी लग गई। फिर अकेले रहने और खाने-पीने की कठिनाई की बात कह कर ‘बचन’ भी अपने बड़े भाई की बनाई हुई लिक पर गमन किया। बहु की पहली सन्तान यह ‘जीतू’ भी कोलकाता के एक नर्सिंग होम में ही जनम लिया है। तब बुढ़िया का मन न माना और वह अपने ही गाँव के एक प्रवासी के साथ भागती बचन के पास जा पहुँची थी। बिरज और बचन के बीच बस यही अंतर रह गया है कि बिरज जो गया तो फिर न लौटा, पर बचन साल, दो साल में सपरिवार गाँव चला आता है। इनके आने मात्र से ही रमेसर मिस्त्री के आँगन में खुशियों की बयार बहने लगती है। दोनों प्राणी की छाती गर्व से फूल कर दुगुना हो जाती हैं। फिर तो इनके पाँव ही जमीन पर नहीं रहते हैं।
‘ठीक है जीतू, तुम इस बार न जाना, तेरे पापा को मैं बोल दूँगा कि जीतू अब कोलकाता न जायेगा, जीतू हमारे साथ गाँव में ही रहेगा। गाँव के ही स्कूल में पढ़ेगा।’ – बहुत ही ताव में अधिकार जताते वृद्ध मन बोल गया। मन गर्वित हो उठा था। जीतू भी सुनकर प्रफुल्लित हो गया। अपनी प्रसन्नता को वह अपने दादा जी के हाथ को पकड़े जबरन आगे-आगे चल कर अभिव्यक्त किया।

‘वाह ! कितना सुंदर है वह बादल। और दादा जी ! वह देखिये उस पेड़ के ऊपर चमकता हुआ वह सूरज है न।’ – लगभग चहकता हुआ कहा।
‘हाँ मेरे बच्चे! यही सूर्य भगवान हैं। सबके पालक।’- दोनों हाथों को लगभग परस्पर जोड़े और उस ओर श्रद्धा से अपने माथे को झुका कर बड़ी विनम्रता से बोले।
‘दादा जी ! हमारे कोलकाता में ऐसा सूरज कभी नहीं दीखता है। हमको स्कूल ले जाने के लिए जो बस आती है न, उसकी खिड़की से ही जब तब सूरज दीख जाता है।’ – नैराश्य स्वर में बोला।
‘अब मेरे जीतू बाबु! देखो यह आसमान। इधर से उधर तक चारों ओर कितना फैला हुआ है। फिर देखो ये पक्षियों की कलरव करती झुण्ड।’ – दादा जी, आसमान में कतारबद्ध उड़ते जाते पक्षियों की ओर संकेत करते हए कहें।
‘अरे वाह ! इतना बड़ा आसमान है। इधर से उधर देखने में तो पूरी गर्दन को ही घुमाना पड़ता है। दादा जी! कोलकाता में तो इतना छोटा-सा ही आसमान दीखता है।’ – दोनों हाथों को फैला कर आयतन बताने की कोशिश करता हुआ जीतू बोल पड़ा।
रमेसर मिस्त्री भी तो अपना इतना ही बड़ा आसमान को देखना चाहते थे, जिसमें बेटा-बहू और पोते-पोती सब इकट्ठा समाये हुए रहते। कितना रंगीन और खुशहाल रहता उनका वह बड़ा आसमान! लेकिन आज उन्हें भी अपना आसमान इतना ही छोटा सा दिख रहा है, जितना जीतू को कोलकाता में आसमान दीखता है। इसके पहले जब जीतू आया था, तब वह बहुत छोटा था। अक्सर उसका स्वस्थ्य खराब ही रहता था। तब उसकी देख भाल में हो रही परेशानी की बात जान कर कई बार उन्होंने बचन के सामने प्रस्ताव रखा था, – ‘न हो तो, जीतू को हमारे पास छोड़ जाओ। यहाँ घर का दूध-दही-मक्खन है, कुछ खरीदना थोड़े ही है ? अभी से खाया-पीया रहेगा तो आगे इसका स्वस्थ भी ठीक रहेगा। यहाँ का पानी और वहाँ की दवा दोनों तो बराबर ही हैं। वहाँ तो पानी भी खरीद करके ही पीते हो। छोटी-सी जेल जैसी कोठरी में दिन भर रहना, न हवा, न पानी। ठीक से चल पाने की भी तो जगह नहीं है, खेल-कूद क्या करेगा। सब कुछ घर का रहते हुए इसे दवाई से पालने की क्या जरूरत है ? जब कुछ बड़ा हो जाए और समझदार हो जाए, तब लेते जाना।’ – पर बचन पर उनकी बातों का कोई असर न पड़ा था। पढाई-लिखाई में पिछड़ जाने का बहाना बना कर उनकी बातों को टालता ही गया। तब दोनों वृद्धजन ने जीतू के स्वस्थ सम्बन्धित बहुत कुछ बातें समझाते हुए अश्रुपूर्ण विदा किये थे। उनके जाने के बाद से बुढ़िया बेचारी उनके ही विचार में खोयी रहती थी। भूख किसे लगती थी ? पडोस की जानकी ही अपने घर से बना हुआ भोजन लाकर जबरन दोनों को अपनी कसमें दे-दे कर करा जाती थी।
रमेसर मिस्त्री आज भी अपने इस छोटे से आसमान को अपने विस्तृत आसमान बनाने के लिए कोई कसर उठा न रखे हैं, पर आदमी अक्सर अपनी संतानों के सम्मुख ही सबसे ज्यादा कमजोर साबित होता है। अतः वे भी नियमानुसार पराजित ही हुए हैं।
‘दादा जी ! इतने सारे पंक्षी यहाँ रोज आते हैं। कितने सुंदर हैं ! कितना सुंदर गा रहे हैं।’ – ख़ुशी से झूमता हुआ जीतू भी उन मुक्त गीत गा रहे पक्षियों की भांति चहक उठा। पर दादा जी को तो जीतू की ख़ुशी में आत्म ख़ुशी की अनुभूति हो रही थी। मन ही मन में डर भी लग रहा था, कि यह ख़ुशी क्षणिक है। एक सप्ताह की ही इनकी छुट्टी है। फिर इस विस्तृत आसमान के नीचे अपने आँगन रुपी छोटे से आसमान में दोनों वृद्ध प्राणी को एक-दूसरे की आँखों में ही एक-दूसरे की ख़ुशी को ढूँढने में ही दिन, सप्ताह, महीनें और वर्ष बिताने जैसे वृहद उपक्रम को करते रहना ही पड़ेगा।

जीतू अब तक सरसों के खिले पीले-पीले फूलों से सजे पीले खेत में घुस चूका था। वह अपने कोमल हाथों में सरसों, तीसी, केराब (मटर) के ढेर सारे नीले, पीले, लाल, बैगनी, गुलाबी आदि फूलों तोड़-तोड़ कर अपने बाएँ हाथ में पकड़े हुए था। उसकी दशा तो यह थी कि किस फूल को तोड़े और किस फूल को छोड़े ? सब अपने आप में अजूबे थे। पास के एक फूल पर लाल-पीले रंग की एक तितली बड़ी देर से मंडरा रही थी। शायद जीतू को अपने समकक्ष जान कर उसे ललचा रही थी। जीतू भी उसे बड़े ही गौर से देख रहा था। फिर अचानक उसे पकड़ने के लिए अपना दाहिना हाथ बढाया, पर वह हाथ क्यों आने लगी ? वह तो जीतू के साथ ही खेलना चाहती थी, उसे भी आज एक संगी मिल गया था। और वह उड़ चली, जीतू भी उसके पीछे-पीछे दौड़ा। इस समय प्रकृति के कई मधुर रूपों में से ये दो मधुर रूप रमेसर मिस्त्री के हृदय को आह्लादित किये जा रहे थे। वे भी अपने आप को रोक न पाए। बहुत दिनों के बाद उन्हें अपना बचपन फिर से लौटा जान पड़ा। वे भी खेत में घुस गए। आगे-आगे तितली, उसके पीछे उसे पकड़ने की चाहत में अपना एक हाथ आगे बढ़ाए जीतू और उसके पीछे पैसठ वर्षीय उमंग से परिपूर्ण बालक मन। अब तो प्रकृति के विविध मधुर रूपों में एक और झुर्रियाँ युक्त शरीर वाला बालक भी जुड़ गया। तीनों ही भाग रहे थे उमंग में। लेकिन थोड़ी ही देर में वृद्ध बालक थक कर खेत की मेढ़ पर बैठ गया और जीतू की उन्मुक्त चंचलता को मन की आँखों से देखते हुए अपनी ह्रदय की रिक्तता को समृद्ध करने का प्रयास करता रहा। काश! उन्मुक्त चंचलता युक्त खुशियों से परिपूर्ण उनके पास भी ‘इतना ही बड़ा आसमान होता’।
दिनांक – 27 जुलाई, 2020 (तुलसी जयंती)

श्रीराम पुकार शर्मा,

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