दुर्गेश वाजपेयी की कविता : “अभिशाप बना है”

“अभिशाप बना है” 

निस्तब्धता से उगा वेग कहाँ देखा?
मन में उठे ज्वाला सा तेज किसने देखा?

किसने देखा, कमल को कीचड़ में खिलते?
कहाँ देखा, रूप को बुढ़ापे संग मिलते?
कब देखा, धरा को अम्बर से मिलते?
कब देखा, प्रेम को प्रेमी संग मिलते?

सब मिथ्या है, तो ये सुधामय सत्य कहाँ है?
यदि ईश्वर है तो फिर ये मायारहित प्रेम कहाँ है?

कहाँ हैं राधा! कहाँ हैं कृष्ण!
जरा बता दो,
जहाँ बसी है प्रेम कुटी,
वो जगह बता दो।

ये जो भी मैं देख रहा हुँ,
क्या वो पाप नहीं है?
या, द्वेष सहित इस जग में पश्चाताप नहीं है?

पश्चाताप नहीं है उन लोगों को,
जिन्होनें केवल कत्ल किये,
मार डाला उन लोगों को
जो जीते थे निज स्वप्न लिये।

क्या? स्वप्न सहित जीना भी अब पाप बना है?
या, इस पृथ्वी पर जन्म लेना ही अभिशाप बना है!

-दुर्गेश वाजपेयी

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