प्रवासी साहित्य एवं संस्कृति : धरोहर और संवेदना पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी सम्पन्न

* संकटग्रस्त मानवता को बचाने की चेष्टा प्रवासी साहित्य में है – डॉ. मीरा सिंह
* प्रवासी साहित्य बोध कराता है कि भारत की जड़ें गहरी हैं – प्रो शर्मा
* अंतरराष्ट्रीय हिंदी साहित्य प्रवाह, अमेरिका द्वारा प्रो. शर्मा साहित्य गौरव सम्मान से अलंकृत

उज्जैन। विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन की हिंदी अध्ययनशाला, पत्रकारिता एवं जनसंचार अध्ययनशाला और गांधी अध्ययन केंद्र द्वारा एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। अमेरिका की वरिष्ठ शिक्षाविद् एवं साहित्यकार प्रो. मीरा सिंह, फिलाडेल्फिया के मुख्य आतिथ्य में आयोजित यह संगोष्ठी प्रवासी साहित्य एवं संस्कृति : धरोहर और संवेदना पर केंद्रित थी। अध्यक्षता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के प्रभारी कुलपति प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने की। विशिष्ट अतिथि शिक्षाविद् गौरीशंकर दुबे, इंदौर एवं वरिष्ठ लघुकथाकार संतोष सुपेकर थे।

कार्यक्रम में अंतरराष्ट्रीय हिंदी साहित्य प्रवाह, अमेरिका द्वारा प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा को उनके द्वारा साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में किए गए विशिष्ट योगदान के लिए साहित्य गौरव सम्मान से अलंकृत किया गया। सम्मान स्वरूप संस्थाध्यक्ष डॉ. मीरा सिंह द्वारा उन्हें शॉल, प्रशस्ति पत्र एवं प्रतीक चिन्ह अर्पित किए गए। कार्यक्रम में प्रभारी कुलपति प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा, डीएसडब्ल्यू डॉ. एस.के. मिश्रा एवं एसओईटी के निदेशक डॉ. डी.डी. बेदिया ने शॉल, श्रीफल एवं साहित्य अर्पित कर यूएसए से पधारीं डॉ. मीरा सिंह को विश्व हिंदी सेवा सारस्वत सम्मान से सम्मानित किया। कार्यक्रम में अतिथियों द्वारा डॉ. मीरा सिंह के हाल ही में प्रकाशित काव्य संग्रह उद्गार का विमोचन किया गया।

संगोष्ठी को संबोधित करते हुए डॉ. मीरा सिंह, यूएसए ने कहा कि प्रवासी व्यक्ति की पीड़ा उसी प्रकार की होती है जैसे लड़की का विवाह के बाद ससुराल में जाकर नए परिवेश में ढलना। वर्तमान दौर में मानवता संकट में है, उसे बचाने की चेष्टा प्रवासी साहित्य करता है। भारत के बाहर का परिवेश प्रवासी भारतीयों को अपने अनुरूप ढालता है, लेकिन हमारी संस्कृति हमें सजग बनाए रखती है। भारतीय संस्कृति सदैव मानवता की ओर प्रवृत्त करती है। भारतीय संस्कृति भीड़ में भी हमारी अलग पहचान कराती है। भारत की सांस्कृतिक धरोहर और संवेदनाओं का प्रारूप बहुत व्यापक है। प्रवासी भारतीय अपनी सभी प्रकार की धरोहरों के प्रति सजग हैं। समय के प्रवाह में विचार मंथन न होने के कारण मानवता समाप्त होती जा रही है। संस्कारों को विकसित करने का दायित्व स्त्रियों का है। मानवीय रिश्तों में आई रिक्तता में पीयूष डालने का कार्य जारी कर सकती है।

प्रभारी कुलपति प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि प्रवासी भारतीयों ने अपने लेखन एवं कार्यों के माध्यम से सिद्ध किया है कि भारत की जड़ें पर्याप्त गहरी हैं। विश्व संस्कृति का निर्माण करने में भारत की संस्कृति का योगदान अद्वितीय है। भारत में रचे जा रहे साहित्य की तुलना में प्रवासी साहित्य में परिवेश के अंतराल से उपजी चिंताओं, सूनेपन, एकाकीपन और अलगाव के साथ जीवन संघर्ष, मूल्य और संस्कृतिगत अंतर दिखाई देता है। उनके साहित्य में जड़ों से दूर होने, भावनात्मक और सांस्कृतिक स्तर पर बहुत कुछ खोने का जीवंत चित्रण मिलता है। महात्मा गांधी ने अनेक दशकों पहले प्रवासी भारतीयों का नेतृत्व करते हुए अहिंसा, शांति और परस्पर प्रेम का संदेश दिया, जो आज भी प्रासंगिक है। भारतवंशी जहां भी गए उन्होंने उस भूमि को समृद्ध बनाने में अविस्मरणीय योगदान दिया।

साहित्यकार गौरीशंकर दुबे, इंदौर ने कहा कि अमेरिका जैसे सम्पन्न देशों में शिक्षा, पर्यावरण और स्वास्थ्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य हुए हैं। दूसरी ओर वहां के जीवन में बंदूक की संस्कृति, अतिशय भोग विलासिता और विशृंखलित व्यवस्था संकट भी खड़े कर रही है। भारत में जिस प्रकार की शांति है, वह दुनिया के किसी भी देश में नहीं मिलती। साहित्यकार संतोष सुपेकर ने मैं उनसा नहीं और आंकड़े शीर्षक कविताएं सुनाईं। डीएसडब्ल्यू डॉ. एस.के. मिश्रा एवं डॉ. डी.डी. बेदिया ने भी संबोधित किया।

6 जनवरी को मध्याह्न के आयोजन में प्रो. गीता नायक, डीएसडब्ल्यू डॉ. एस.के. मिश्रा, डॉ. डी.डी. बेदिया, डॉ. भोलेश्वर दुबे, इंदौर, डॉ. सुशील शर्मा, डॉ. अजय शर्मा, हीना तिवारी आदि सहित अनेक शोधार्थी एवं सुधीजन उपस्थित रहे। वाग्देवी भवन स्थित हिंदी अध्ययनशाला में सम्पन्न इस महत्वपूर्ण संगोष्ठी के प्रारंभ में मोहन तोमर ने सरस्वती वंदना प्रस्तुत की। संगोष्ठी का संचालन हीना तिवारी ने किया। आभार प्रदर्शन युगेश द्विवेदी ने किया।

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