Dalits were able to enter the temple for the first time in this village of Bengal

बंगाल के इस गांव में पहली बार मंदिर में प्रवेश कर पाए दलित

  • 350 साल बाद मिला दलितों को मंदिर में प्रवेश का अधिकार

कोलकाता। कोलकाता से लगभग 150 किलोमीटर दूर कटवा अनुमंडल के गिधाग्राम गाँव में इतिहास रच दिया गया। पहली बार, गाँव के दलितों ने गिधेश्वर मंदिर में प्रवेश किया—यह घटना सदियों से चले आ रहे भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम मानी जा रही है।

द इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, 50 वर्षीय ममता दास ने से बात करते हुए कहा, “मंदिर की 16 सीढ़ियाँ चढ़कर पूजा अर्पित करने से हमारी पीढ़ियों का बहिष्कार समाप्त हुआ।”

ममता उन पाँच दलितों में से एक थीं, जिन्होंने पहली बार इस मंदिर में प्रवेश किया। उनके साथ 45 वर्षीय शांतनु दास, 30 वर्षीय लक्ष्मी दास, 27 वर्षीय पूजा दास और 45 वर्षीय शश्थी दास भी शामिल थे। अब तक, गाँव के 550 दलित निवासियों को इस मंदिर में जाने की अनुमति नहीं थी।

पश्चिम बंगाल के शिव मंदिर में करीब 350 साल बाद पहली बार दलितों को प्रवेश का अधिकार मिला है। पूर्व बर्दवान जिले के गिधाग्राम स्थित गिधेश्वर शिव मंदिर में गांव में रहने वाले करीब 130 दलित परिवारों को प्रवेश की अनुमति नहीं थी। वहां यह परंपरा जमींदारों के जमाने से ही चली आ रही थी।

बीच में कई बार उन लोगों ने यह मांग उठाई थी लेकिन यह नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह गई थी। अब बीते महीने शिवरात्रि के बाद दलितों ने एकजुट होकर प्रशासन से गर्भगृह में प्रवेश की अनुमति मांगी थी।

Dalits were able to enter the temple for the first time in this village of Bengal

इस मुद्दे पर गांव के सवर्णों के साथ लंबे समय विवाद भी चल रहा था। मामला बढ़ते देख कर प्रशासन की मध्यस्थता के बाद उनको मंदिर में प्रवेश की अनुमति मिली है।

उसके बाद भारी तादाद में पुलिस वालो की तैनाती के बीच गांव के पांच दलितों ने पहली बार इस सप्ताह मंदिर में पूजा-अर्चना की। इनमें शामिल पूजा दास का कहना था कि अब हमारे पुरखों के दौर से चल रहा भेदभाव खत्म हो गया है।

यह हमारे लिए एक ऐतिहासिक दिन है। गिधाग्राम की आबादी करीब दो हजार है। उनमें दलितों की आबादी छह फीसदी है। यह लोग दशकों से मंदिर में प्रवेश के अधिकार की मांग में आवाज उठा रहे थे। बीते महीने शिवरात्रि के मौके पर उन लोगों ने इस मुद्दे पर जिला प्रशासन को पत्र भी भेजा था।

इसमें कहा गया था कि सवर्ण लोग उनको सदियों से छोटी जाति का और अछूत मानते हैं और उनकी दलील रही है कि हमारे प्रवेश से मंदिर अपवित्र हो जाएगा।

इसके बावजूद उनको शिवरात्रि के दिन मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं मिली। उसके बाद स्थानीय प्रशासन की पहल पर बैठकों और बातचीत के लंबे सिलसिले के बाद आखिर इस सप्ताह सदियों पुराना रिवाज बदल गया। 11 मार्च को इस मुद्दे पर हुई अंतिम बैठक में स्थानीय विधायक भी मौजूद थे।

Dalits were able to enter the temple for the first time in this village of Bengal

गांव में दास (दलित) समुदाय के शंभू दास बताते हैं कि हमारे पूर्वजों को कभी इस मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं मिली थी। लेकिन अब हम पढ़े-लिखे हैं और इस नीति में बदलाव जरूरी था। इसलिए हमने आवाज उठाई थी। पुलिस और प्रशासन के सहयोग से आखिर हमें अपना अधिकार मिल गया है।

उम्मीद है यह बिना किसी दिक्कत के जारी रहेगा। शंभू बताते हैं कि शुरुआती दौर में स्थानीय प्रशासन की ओर से सहयोग नहीं मिलने पर हमने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को पत्र भेज कर इस मामले में हस्तक्षेप करने की अपील की थी। उसके बाद बैठकों का सिलसिला तेज हुआ।

दूसरी ओर, मंदिर में दलितों के प्रवेश का विरोध करने वाले समुदाय के एक सदस्य शांतनु घोष का कहना है कि यह परंपरा हमारे पूर्वजों ने बनाई थी। उन्होंने हर समुदाय के लोगों की जिम्मेदारी तय कर दी थी। लेकिन गर्भगृह में ब्राह्मणों  के अलावा किसी दूसरे समुदाय के व्यक्ति का प्रवेश निषेध था। हम तो उसी परंपरा का पालन कर रहे थे।

समाजशास्त्रियों का कहना है कि यह घटना इस बात का सबूत है कि अस्पृश्यता और जातिवाद सदियों से लोगों के मन में कूट-कूट कर भरा है।कम से कम बंगाल में ऐसी घटना की कल्पना नहीं की जा सकती। अगर यह मामला सामने नहीं आता तो पता ही नहीं चलता कि सैकड़ों साल पुरानी ऐसी परंपरा राज्य में अब भी जारी हैं।

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