Conflict over trade policies between developing and developed countries

बाकू में COP29: जलवायु संकट और अधूरे वादों की कहानी

निशान्त, Climateकहानी, कोलकाता। बाकूअज़रबैजान में आयोजित 29वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP29) ने दुनिया भर के देशों को एक बार फिर जलवायु परिवर्तन के खिलाफ एकजुट होने का मौका दिया. लेकिनइस सम्मेलन के अंत में जो हासिल हुआउसने यह साबित किया कि वादों और वास्तविकता के बीच की खाई आज भी बहुत गहरी है. सम्मेलन में कुछ महत्वपूर्ण घोषणाएं हुईंलेकिन उनसे उम्मीद की जाने वाली तात्कालिक और ठोस कार्रवाई का अभाव स्पष्ट रूप से दिखाई दिया.

क्लाइमेट फायनेंस: एक नया लक्ष्यलेकिन अपर्याप्त

COP29 में सबसे बड़ी घोषणा “न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल” (NCQG) के रूप में सामने आई. यह लक्ष्य 2035 तक जलवायु वित्त या क्लाइमेट फायनेंस के लिए प्रति वर्ष $300 बिलियन जुटाने का है. यह 2009 में तय किए गए $100 बिलियन के लक्ष्य की जगह लेता हैजो अब तक कभी पूरा नहीं हुआ.

भारत और G77+चीन ने इस लक्ष्य को अस्वीकार्य बताते हुए $500 बिलियन सालाना सार्वजनिक वित्त की मांग की. भारत का कहना है कि विकसित देशों ने अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारियों से बचने के लिए इस लक्ष्य को “स्वैच्छिक योगदान” और बहुपक्षीय विकास बैंकों (MDBs) की फंडिंग पर निर्भर बना दिया है. अंतिम घंटों में इस लक्ष्य को जल्दीबाज़ी में अपनाया गयाजबकि विकासशील देशों ने इसका कड़ा विरोध किया.

COP29 in Baku: A tale of climate crisis and unfulfilled promises

कार्रवाई या दिखावा?

सम्मेलन के दौरान कई महत्वपूर्ण मुद्दे उठेलेकिन उनमें से अधिकांश केवल चर्चा के स्तर पर ही सीमित रह गए:

  1. कार्बन बाजार का सवाल
    अनुच्छेद के तहत कार्बन क्रेडिट खरीदने और बेचने की प्रक्रिया को अंतिम रूप दिया गया. इसका उद्देश्य एमिशन में कमी के लिए निवेश को बढ़ावा देना है. लेकिनयह व्यवस्था विकसित देशों के लिए अपने वास्तविक एमिशन घटाने की जिम्मेदारी से बचने का जरिया भी बन सकती है.
  2. स्वास्थ्य और जलवायु
    बाकू प्रेसीडेंसीज कंटीन्युइटी कोएलिशन फॉर क्लाइमेट एंड हेल्थ” की स्थापना एक सकारात्मक कदम है. लेकिन इस पहल का असर तभी होगाजब इसे पर्याप्त धन और संसाधन मुहैया कराया जाए.
  3. फ़ॉसिल फ़्यूल पर निर्भरता
    मेजबान देश अज़रबैजान ने तेल और गैस को “भगवान का उपहार” कहकर इस सम्मेलन की भावना को ठेस पहुंचाई. जबकि दुनिया फ़ॉसिल फ़्यूल से दूर जाने की कोशिश कर रही हैअज़रबैजान जैसे देशों की यह मानसिकता वैश्विक जलवायु लक्ष्यों को कमजोर करती है.
  4. भूराजनीतिक जटिलताएं
    अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की पुनः राजनीतिक वापसी ने वैश्विक जलवायु कार्रवाई पर संदेह बढ़ा दिया है. यह आशंका है कि ट्रंप प्रशासन की नीतियां जलवायु वित्त और अनुकूलन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर प्रगति को बाधित कर सकती हैं.

भारत: जलवायु नेतृत्व का उदय

COP29 में भारत का प्रदर्शन एक मजबूत और प्रगतिशील राष्ट्र के रूप में सामने आया. भारत ने “कॉमन बट डिफरेंशिएटेड रेस्पॉन्सिबिलिटीज” (CBDR) के सिद्धांत पर जोर दियाजो विकासशील देशों के साथ न्यायसंगत व्यवहार सुनिश्चित करता है. भारतीय प्रतिनिधि चांदनी रैना ने अपने वक्तव्य में विकसित देशों की गैर-जिम्मेदाराना नीतियों पर सवाल उठाए और जलवायु वित्तप्रौद्योगिकी हस्तांतरणऔर अंतरराष्ट्रीय सहयोग की मांग की.

भारत का यह रुख अन्य विकासशील और छोटे द्वीपीय देशों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना. भारत ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह सतही और असमान समाधानों को स्वीकार नहीं करेगा.

बाकू का सबक: खोया अवसर या सुधार की उम्मीद?

COP29 ने दिखाया कि वादे करना आसान हैलेकिन उन्हें निभाना कठिन. जलवायु वित्त का नया लक्ष्य कागज पर अच्छा दिखता हैलेकिन यह पर्याप्त नहीं है. बाकू सम्मेलन ने यह भी उजागर किया कि देशों के बीच विश्वास की कमी और विकसित तथा विकासशील देशों के बीच की खाई जलवायु कार्रवाई में बड़ी बाधा है.

आगे की राह

अब COP30, जो ब्राजील में आयोजित होगासे उम्मीदें बढ़ गई हैं. यह जरूरी है कि भविष्य के सम्मेलनों में खोखले वादों की जगह ठोस कदम उठाए जाएं. जलवायु परिवर्तन कोई दूर का संकट नहीं हैयह एक गंभीर और वर्तमान चुनौती हैजो हर दिन विकराल होती जा रही है.

निष्कर्ष

COP29 ने जलवायु संकट को हल करने की दिशा में कुछ कदम जरूर उठाएलेकिन यह दुनिया को यह भी याद दिलाता है कि असली काम अभी बाकी है. यह वक्त है जब दुनिया को साहसिकन्यायसंगत और तत्काल कार्रवाई करनी होगीताकि हमारी आने वाली पीढ़ियों को एक सुरक्षित और स्थायी भविष्य मिल सके.

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