डीपी सिंह की रचनाएँ

हिन्दी माँ है, इसकी महिमा, मुख से अपने गाएँ क्या?
ये है दिन का चढ़ता सूरज, इसको दीप दिखाएँ क्या?

हिन्दी अन्तस् में बसती है, यह पहचान हमारी है
हिन्दी से हम बचे हुए हैं, इसको भला बचाएँ क्या?

हम नालायक माँ को अपने, वृद्धाश्रम में रखते हैं
एक दिवस या पखवाड़े पर, इसको हार चढ़ाएँ क्या?

केश वेश परिवेश सभी में, नकल पश्चिमी कर लें, पर
आवश्यक है अपनी भाषा की हम हँसी उड़ाएँ क्या?

जिस भाषा में बात करोगे, उत्तर उसमें पाओगे
समझ न पाये अगर अभी तो, हिन्दी में समझाएँ क्या?

डीपी सिंह

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