Climate change has changed the face of agriculture in Uttarakhand

जलवायु परिवर्तन ने बदली उत्तराखंड की खेती की सूरत

  • आलू-गेहूं छोड़ किसानों ने पकड़ी दाल-मसालों की राह,
  • बीते दशक में 27% कम हुई खेती की ज़मीन, 70% गिरी आलू की पैदावार

निशान्त, Climateकहानी, कोलकाता। उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में जलवायु परिवर्तन की मार ने खेती के नक्शे को पूरी तरह बदल दिया है। क्लाइमेट ट्रेंड्स की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले एक दशक में जहां खाद्यान्न और तिलहन जैसी परंपरागत फसलों का दायरा 27% तक सिमट गया है, वहीं दलहन और मसालों की खेती में ज़बरदस्त उछाल दर्ज किया गया है।

रिपोर्ट ‘पहाड़ों में जल और ताप तनाव: जलवायु परिवर्तन उत्तराखंड के कृषि परिदृश्य को कैसे आकार दे रहा है’ बताती है कि बढ़ते तापमान, अनियमित बारिश और जल संकट के चलते किसान अब गेहूं, धान और आलू जैसी पानी मांगने वाली फसलों से दूरी बना रहे हैं। इनकी जगह अब अरहर, कुल्थी, रामदाना, भट्ट और मक्का जैसी पारंपरिक और लचीली फसलें ले रही हैं।

उत्तराखंड के पहाड़ों में आलू की पैदावार बीते पांच वर्षों में 70% से अधिक घट चुकी है। 2020-21 में जहां आलू का उत्पादन 3.67 लाख मीट्रिक टन था, वह 2023-24 में गिरकर मात्र 1.07 लाख मीट्रिक टन रह गया। इस दौरान आलू की खेती का क्षेत्रफल भी 26,867 हेक्टेयर से घटकर 17,083 हेक्टेयर रह गया।

Climate change has changed the face of agriculture in Uttarakhand

विशेषज्ञों का मानना है कि बदलते मौसम पैटर्न और घटती बर्फबारी इसकी मुख्य वजह हैं। कृषि विज्ञान केंद्र, उधम सिंह नगर में तैनात डॉ. अनिल कुमार के मुताबिक, “पहाड़ों में आलू की खेती अब पहले जैसी नहीं रही। बारिश और बर्फबारी दोनों का अभाव है, जिससे उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ है।”

खेती को सिर्फ मौसम ही नहीं, जंगली जानवरों से भी नुकसान हो रहा है। लोक चेतना मंच के अध्यक्ष जोगेंद्र बिष्ट बताते हैं कि खेतों में अब नमी टिकती नहीं और ऊपर से जंगली सूअर रातों को पूरी फसल उजाड़ देते हैं। “पानी की कमी, तापमान में इज़ाफा और जानवरों का बढ़ता खतरा—तीनों ने पारंपरिक फसलों की राह मुश्किल कर दी है।”

भारत के मौसम आपदा एटलस के अनुसार, वर्ष 2023 में उत्तराखंड में कुल 94 दिनों तक चरम मौसम की स्थितियां बनी रहीं, जिससे 44,882 हेक्टेयर कृषि भूमि प्रभावित हुई। साथ ही, तापमान में हर साल 0.02 डिग्री सेल्सियस की औसत बढ़ोतरी दर्ज की गई।

गहत, भट्ट, चना और अरहर जैसी देशी दालें अब किसानों के लिए नई उम्मीद बन रही हैं। ये फसलें कम पानी और कम इनपुट में भी अच्छी उपज देती हैं और पोषण के लिहाज़ से भी काफी समृद्ध हैं।

उत्तराखंड में मसालों की खेती को भी बढ़ावा मिला है। राज्य में हल्दी का उत्पादन 122% बढ़ा है, वहीं मिर्च की खेती में 35% की वृद्धि हुई है। मसालों का कुल रकबा 50% तक बढ़ा है, जबकि उत्पादन में 10.5% की बढ़त देखी गई है।

Climate change has changed the face of agriculture in Uttarakhand

सरसों, तोरिया और सोयाबीन जैसी तिलहन फसलें अभी छोटे स्तर पर हैं, लेकिन इनमें वृद्धि की प्रवृत्ति दिख रही है। हालाँकि इनकी औसत पैदावार में सुधार की गुंजाइश अभी बाकी है।

उत्तराखंड की पारंपरिक बारानाजा बहुफसली प्रणाली अब इतिहास बनती जा रही है, लेकिन किसान अब नई बहुफसली रणनीतियों के साथ प्रयोग कर रहे हैं। दलहन पर केंद्र सरकार के आत्मनिर्भरता मिशन और बाज़ार सहयोग ने भी किसानों को नई राह अपनाने के लिए प्रेरित किया है।

जोगेंद्र बिष्ट कहते हैं, “पहले जहां किसान धान-गेहूं पर निर्भर थे, अब वे काली सोयाबीन, कुल्थी और मक्का जैसी फसलों की ओर बढ़ रहे हैं। ये न सिर्फ मौसम के अनुकूल हैं, बल्कि बाज़ार में इनकी मांग भी बढ़ रही है।”

क्लाइमेट ट्रेंड्स की रिपोर्ट यह स्पष्ट संकेत देती है कि उत्तराखंड की पहाड़ी खेती अब बदलाव के दौर से गुजर रही है। जलवायु के अनुकूल, कम पानी और कम इनपुट वाली फसलों की ओर बढ़ता यह झुकाव न सिर्फ खाद्य सुरक्षा की दिशा में अहम कदम है, बल्कि इससे किसानों की आजीविका भी सुरक्षित हो सकती है।

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