सीएए : शरणार्थियों की उम्मीदों का टूटा सपना

अशोक वर्मा “हमदर्द”, कोलकाता। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) की घोषणा की थी, तब करोड़ों शरणार्थियों की बुझती आंखों में उम्मीदों की एक नई लौ जली थी। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान जैसे देशों में दशकों से उत्पीड़न का शिकार हो रहे हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदाय के लोग यह मान बैठे थे कि अब उन्हें भारत में उनका अपना घर, अपनी अपनी धरती पर जीने का अधिकार मिलेगा।

उन लोगों ने अपने मुल्कों में धर्म के नाम पर अपमान सहा, अपनी बेटियों की अस्मिता गंवाई, अपने घर-द्वार, संपत्ति और रोज़गार खोए, और जब भारत की ओर आशा की दृष्टि डाली, तो यह कानून उन्हें संजीवनी जैसा प्रतीत हुआ। पर यह संजीवनी कब जहर बन गई, यह न तो उन शरणार्थियों को पता चला, न ही उस समाज को जिसने कभी उन्हें अपनाने का संकल्प लिया था।

आज सच्चाई यह है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश से जान बचाकर भारत पहुंचे हजारों शरणार्थी हमारे देश में खाक छान रहे हैं। उनकी स्थिति घुसपैठियों से भी बदतर है। वे भारत में अपना सबकुछ गंवा कर आए थे, सोचते थे यहां शरण मिलेगी, पर यहां उन्हें तंबू और बांस ही नसीब हुआ। न निवास का ठिकाना है, न रोज़गार का साधन। न शिक्षा की व्यवस्था है, न स्वास्थ्य की।

उधर घुसपैठिए भारत की छाती पर मूंग दल रहे हैं। वे अवैध रूप से सीमा पार कर हमारे शहरों, कस्बों, गांवों में बस चुके हैं। उन्हें राजनीतिक दलों का संरक्षण मिला है। उन्हें राशन कार्ड मिल गया, आधार कार्ड बन गया, वोटर आईडी बन गया। उनका हर काम जैसे सरकार की प्राथमिकता में शामिल हो गया। वे घरों में काबिज हैं, व्यवसाय कर रहे हैं, और सरकारी योजनाओं का लाभ उठा रहे हैं।

तो फिर सवाल यह उठता है कि आखिर उन शरणार्थियों का क्या दोष है जिन्होंने जीवन की अंतिम आशा भारत माता की गोद में खोजी थी? क्या वे इसीलिए दोषी हैं कि वे घुसपैठिए नहीं हैं? क्या उनकी गलती यह थी कि वे मजबूरी में अपनी मातृभूमि छोड़कर आए और कानून की राह देख रहे थे? क्या इसलिए उन्हें सजा दी जा रही है कि उन्होंने भारत के संविधान का सम्मान किया और अवैध तरीके से अपनी पहचान छुपा कर बस जाने की जगह न्यायिक प्रक्रिया पर भरोसा किया?

यह कटु सत्य है कि भारत की भूमि पर इन शरणार्थियों के लिए कोई स्थायी प्रबंध नहीं किया गया। वे तंबुओं में रह रहे हैं। बरसात में उनके घर बह जाते हैं, सर्दी में उनके बच्चे ठिठुरते हैं, गर्मियों में जलती हुई धरती उनके पैरों को जला देती है। चिकित्सा की सुविधा नहीं है। बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। जिन महिलाओं ने पाकिस्तान और बांग्लादेश में घोर अत्याचार सहे, वे यहां भी भय और भूख से लड़ रही हैं।

यही नहीं, जिन समुदायों को सीएए के तहत नागरिकता देने की बात की गई थी, उनकी फाइलें आज भी सरकारी दफ्तरों की धूल फांक रही हैं। दिल्ली से लेकर कोलकाता, जयपुर से लेकर भोपाल तक – हर जगह शरणार्थी धरनों पर बैठे हैं, कभी ज्ञापन दे रहे हैं, कभी प्रदर्शन कर रहे हैं, तो कभी नेताओं की चौखट पर न्याय की भीख मांग रहे हैं। पर उनके हिस्से में आश्वासन आता है, समाधान नहीं।

और यह सब तब हो रहा है जब नागरिकता संशोधन अधिनियम एक वैधानिक रूप से पारित कानून है। संसद से बहुमत से पारित हुआ, राष्ट्रपति की मुहर लगी, लेकिन क्रियान्वयन के नाम पर शून्य। न नियमावली बनी, न प्रक्रिया तय हुई, न आवेदन का कोई स्पष्ट मार्ग। कानून बनाकर ठंडे बस्ते में डाल देना क्या यही सुशासन है? क्या यही संवेदनशील राष्ट्र का दायित्व है?

प्रधानमंत्री मोदीजी, आपसे देश के करोड़ों नागरिकों ने उम्मीद की थी कि आप उन पीड़ितों की पीड़ा को समझेंगे जिनके पास अब कोई और ठिकाना नहीं है। आपने चुनावी मंचों से कहा था कि सीएए किसी भारतीय के अधिकार नहीं छीनता, यह तो उनके लिए है जो दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। पर आज वे ठोकरें खा रहे हैं – आपके ही बनाए कानून को लेकर, आपकी ही सरकार की उदासीनता से।

दूसरी ओर, राजनीतिक दलों की सेक्युलर होड़ ने घुसपैठियों को सिर आंखों पर बिठा लिया। वोट बैंक की राजनीति ने उन्हें साधन, सुविधा और संरक्षण सब दे दिया। वोट के लिए कोई अपराधी भी गले लगाया जा सकता है – यह सिद्ध हो गया। पर कानून का सम्मान करने वाले, संविधान पर आस्था रखने वाले शरणार्थी यहां ठोकरें खाने को अभिशप्त हैं।

यह कैसी विडंबना है? यह कैसा न्याय है? यह कैसी नीति है जहां अपराधियों को इनाम और पीड़ितों को सजा मिल रही है? सीएए उन लाखों परिवारों के लिए आशा की किरण था जो विभाजन के दर्द को अब भी झेल रहे थे। लेकिन अब यह कानून प्रतीक बनकर रह गया है – प्रतीक सरकार की संवेदनहीनता का, प्रतीक एक टूटे वादे का, प्रतीक उन पीड़ितों की झुकी हुई गर्दनों का जो आज भी भारत माता की ओर आशा से देख रहे हैं।

भारत की सरकार को अब यह तय करना होगा कि क्या वह उन शरणार्थियों की आंखों में बसे सपनों की कद्र करेगी या उन्हें यूं ही भूख, बेबसी और बदहाली में छोड़ देगी। क्या वह उन लोगों की ओर भी देखेगी जो अपना सबकुछ गंवाकर भारत आए या फिर केवल उन पर दया करेगी जो अवैध रूप से घुसपैठ कर हमारे संसाधनों पर कब्जा कर चुके हैं?

यह प्रश्न केवल मोदी सरकार के लिए नहीं है। यह प्रश्न पूरे राष्ट्र के लिए है। क्या हम एक ऐसा समाज बन चुके हैं जो सच्चे पीड़ितों की उपेक्षा और अपराधियों का सम्मान करता है? क्या हमारी राजनीति इतनी नीचे गिर चुकी है कि जो वोट दे सकता है, वह चाहे देशद्रोही हो, स्वागत पाता है और जो देश के प्रति निष्ठावान है, उसे तिरस्कार मिलता है?

प्रधानमंत्री जी, आपसे यह देश सवाल करता है – उस सीएए का क्या हुआ जिसकी घोषणा पर शरणार्थियों ने आपके नाम की जयघोष की थी? क्या वह कानून भी केवल एक जुमला बनकर रह गया? क्या उसकी नियमावली बनाना इतना कठिन है कि वर्षों बीत जाएं? क्या इस कानून को अमल में लाने का साहस अब किसी के पास नहीं?

देश के करोड़ों नागरिक आपसे यह जवाब चाहते हैं। क्योंकि यह सिर्फ एक कानून का सवाल नहीं है। यह सवाल है भारत माता की गोद में आए उन पीड़ितों के जीवन और मरण का। यह सवाल है उनके सपनों का, उनकी उम्मीदों का। यह सवाल है एक राष्ट्र के आत्म सम्मान का।

प्रधानमंत्री जी, कृपा करिए। उस कानून का अचार न बनाइए। उसे लागू करिए ताकि उन बेघरों को घर मिल सके, उन भूखों को रोटी मिले, उन निहत्थों को सहारा मिले। अन्यथा इतिहास आपकी सरकार को एक ऐसे शासन के रूप में याद करेगा जिसने कानून तो बनाया, पर उसका पालन न कर सका।

अशोक वर्मा “हमदर्द”, लेखक

(स्पष्टीकरण : उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं। यह जरूरी नहीं है कि कोलकाता हिंदी न्यूज डॉट कॉम इससे सहमत हो। इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है।)

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