कोलकाता। दुनिया में शोर है। समाज में शोर है। हमारे आसपास शोर है। ग्राम से लेकर नगर तक और राजनीति, साहित्य से लेकर संस्कृति तक सर्वत्र शोर है। यह शोर विभिन्न रूपों में सुनायी देता है। कहीं नारों और विचारों का, कहीं हिंसा और उन्माद शोर है। अहिंसा पर हिंसा का और सच पर झूठ का शोर हावी है। यह शोर डराता है, इंसानियत की आवाज़ों को दबाता है। यातनाओं की चीख और विवशताओं के विलाप को निगल जाता है। शोर किसी की सुनता नहीं है, केवल अपनी सुनाता है। प्रत्येक शांतिप्रिय और संवेदनशील व्यक्ति को यह शोर परेशान करता है। कवि किरण काशीनाथ को भी यह शोर परेशान करता है। ‘यहाँ शोर बहुत है’ किरण काशीनाथ का नया कविता संग्रह है। इस संग्रह की कविताएँ शोर के प्रतिकार की कविताएँ हैं। प्रतिकार का यह स्वर उनकी कविताओं में कई रूपों में दिखायी देता है।
हिंसा, अन्याय और अनैतिकता की दुनिया में झूठ इतना ताकतवर होता है कि सच उसके समक्ष दबा-सहमा सा रहता है। झूठ को सिद्ध करने की जरूरत नहीं पड़ती, सच को ही स्वयं को साबित करना पड़ता है। ‘क़ानून व्यवस्था’ कविता के ये शब्द समाज की भयावहता पर एक सशक्त टिप्पणी हैं- ‘संविधान सभा से निकलकर/ सिटी पोलिस स्टेशन से मुड़कर/ न्यायालय की ओर जाते समय/ थोड़ी देर के लिए/ सच से भेंट हुई थी/ जल्दी में था/ फिर भी/ पूछ ही लिया/ कैसी जल्दबाज़ी है……/ कहाँ जा रहे हो?/ उसने कहा …../ कुछ मत पूछो/ अपने आप को/ साबित करने जा रहा हूँ। (पृष्ठ-56)
सच यह है कि दुनिया शोर की दुनिया है। एक शोर सामाजिक दुनिया में है दूसरा शब्द और साहित्य की दुनिया में है। एक शोर सन्नाटा पैदा करता है दूसरा सन्नाटे को तोड़ता है। किरण काशीनाथ की कविताएँ अमानवीय दुनिया के शोर से पैदा सन्नाटे को तोड़ती हैं। कवि शब्दों की ताक़त को जानता और पहचानता है। तभी वह कहता है- ’हमारे जज़्बात/ शब्दों में और/ शब्द विश्वास में/ तब्दील हो जाएँ/ इसी कोशिश में/ मैं कविता लिख रहा हूँ/ अपने जज़्बातों को/ कभी पानी तो कभी लहू/ लिख रहा हूँ।’ (पानी, लहू और कविता, पृष्ठ-36)
दलित आजाद देश में भी गुलामों का जीवन जीने के लिए विवश हैं। देश की आजादी के सात दसकों के बाद भी वे संवैधानिक अधिकारों से वंचित हैं। और इस सब का कारण भारत की वर्ण-जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था है जो दलितों को सामाजिक सम्मान और मानवीय गरिमा से वंचित करती है। यह व्यवस्था उनके लिए एक जेल है जहाँ उन्हें सामाजिक अपमान, अन्याय और अस्पृश्यता का दंश मिलता है। जब तक जाति-व्यवस्था रहेगी तब तक व्यक्ति की पहचान जाति के साथ रहेगी। जाति की पहचान ख़त्म होने पर ही मनुष्य के रूप में पहचान संभव हो सकती है। किंतु विडंबनापूर्ण है कि भारतीय समाज जाति से मुक्त होने के बजाए जाति के प्रति आग्रही बना हुआ है। उसके नजरिए में कोई ख़ास बदलाव दिखायी नहीं देता है। कवि के ये शब्द इस कटु यथार्थ को बयान करते हैं- ’हर नजरिया अब/जाति के तराज़ू में/तोला जा रहा है/ इंसान का वजूद/उसकी जाति से/ठहराया जा रहा है/ जन्म से लेकर मृत्यु पर/ जाति की मोहर/ लगायी जा रही है/ इंसान से इंसान होने की/ पहचान मिटायी जा रही है।’ (आज़ाद देश के ग़ुलाम लोग, पृष्ठ-62)
मनुष्यता के लिए इससे अधिक शर्मनाक बात नहीं हो सकती कि गाय के प्रति संवेदनशील रहने वाला समाज मनुष्यों के प्रति संवेदनहीन रहता है। वास्तव में यह गाय प्रेम सच्चा मानावीय प्रेम नहीं सांस्कृतिक वर्चस्व का प्रकटीकरण है। तभी तो एक गाय की मौत पर असंतोष का जितना विस्फोट होता है, दलितों की मौत पर समाज में उतनी ही ख़ामोशी और उदासीनता देखी जाती है। कवि को समाज का यह छद्म परेशान करता है, तभी वह लिखता है- ‘काश……../वो इंसान और जानवर में/ फर्क समझते।’ (गौ पीड़ा, पृष्ठ-37)
भारत में अनेक समाज सुधारक और सुधारवादी आंदोलन हुए, किंतु जाति-व्यवस्था के विरुद्ध कोई आंदोलन देश में नहीं हुआ। जाति-जनित समस्याओं को धार्मिक और आध्यात्मिक रूप देकर उनका पोषण किया गया। कई राजनीतिक बदलाव भी हुए हैं, किंतु दलितों की स्थिति में कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं हुआ है। वे आज भी वैसे ही हैं जैसे सदियों से रहे हैं। ज़िंदा लाश के सिवा उनका कोई वजूद नहीं है। दलितों के लिए जीवन युद्ध का मैदान है और प्रत्येक दिन एक युद्ध है। वे इस युद्ध के लिए विवश हैं। यह युद्ध उन पर थोपा गया है। यह विडंबनापूर्ण और त्रासद है। समाज, संस्कृति और राजनीति के सत्ताधीशों से परिवर्तन की कोई उम्मीद दिखायी नहीं देती है। जब किसी के बदलने से कोई उम्मीद नहीं रह जाएँ तो ख़ुद को बदलना चाहिए। यही बेहतर विकल्प है। कवि के शब्दों में- ‘जब हिंदुस्तान था/ उस वक़्त भी हमें नकारा गया/ जब भारत बना/ तब भी हमें नकारा गया/ जब इंडिया बना/ तब भी हमें नकारा गया/……….. देश बदल जाएगा/ रखवालदार नहीं बदलेंगे/ अब हमें ही/ बदलना चाहिए।’ (बदलता देश, पृष्ठ-16)
भारतीय समाज की समस्याओं में एक ज्वलंत समस्या आदिवासियों की भी है। उनकी जमीन और जंगल पर बाहरी तत्वों (उद्योग/कारपोरेट) का कब्ज़ा होता जा रहा है और अपनी ही ज़मीन से उनका विस्थापन हो रहा है। कवि की सजग दृष्टि इस यथार्थ की भयावहता को पहचानती है। कवि के शब्दों में- ‘जैसे-जैसे वक़्त बीतने लगा/ मुसाफ़िर पेड़ों पर ही नहीं/ फलों, फूलों और छांव पर भी/ मालिकाना हक जताने लगे।’ (पेड़, परिंदे और मुसाफ़िर, पृष्ठ-12) कवि की मानवीय दृष्टि इस सत्य को पहचानती है कि पेड़ और जंगल कटते हैं तो वहाँ रहने वाले आदमी ही नहीं उजड़ते उन पेड़ों पर रहने वाले परिंदे भी उजड़ते हैं। ‘जहाँ इंसान होने की/ पहचान छीनी गयी हो/ वहाँ इन मासूम, बेज़ुबान/परिंदों की बिसात क्या।’ (पेड़, परिंदे और मुसाफ़िर, पृष्ठ-12)
शोषक वर्ग शोषित वर्गों को उनके अधिकारों से वंचित करता है अधिकार देता नहीं है। अधिकारहीनों को अपने वाजिब अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ता है। दलित-शोषित वर्गों के लिए ज़िंदगी एक युद्ध होती है वे जीते नहीं युद्ध करते हैं। मनुष्यता से बेदखल लोगों की पहली आवश्यकता मानवीय गरिमा प्राप्त करना है। मानवीय अधिकारों की लड़ाई किसी व्यक्ति या वर्ग के अधिकारों की लड़ाई नहीं होती, मनुष्यता की रक्षा की लड़ाई होती है और इस लड़ाई में स्त्रियों की सहभागिता अत्यंत आवश्यक है। कवि इस यथार्थ को समझता है तभी वह अपनी बेटी से कहता है, ‘बेटी,/ यहाँ अपने वाजिब हक़ के लिए/ सारी उम्र गँवानी पड़ती है/ फिर भी/ अपने हक़ के लिए/ हमेशा लड़ते रहना/ लड़ना हमारे/ वजूद का हिस्सा है/ लड़ना तुम्हारा/ मक़सद होना चाहिए/ लड़ना हमारी ज़िंदगी का/ बेहतरीन पल होता है।’ (बेटी………तुम्हारे लिए, पृष्ठ-47)
वर्तमान समय में हमारे देश में देशभक्ति और देशद्रोह शब्दों का प्रचुर प्रयोग हो रहा है। इन शब्दों ने नयी परिभाषा और अर्थ ग्रहण कर लिए है। जिसके अनुसार, सत्ता के सुर में सुर मिलाना देशभक्ति और अपने अधिकारों की माँग करना देशद्रोह है। यह वैसा ही है जैसा देवता (ब्राह्मणों) के सुर में अपना सुर नहीं मिलाने वालों को एक समय में असुर (राक्षस) घोषित कर उन्हें भयानक शक्ल वाले, क्रूर, हिंसक और मनुष्य का दुश्मन प्रचारित किया गया। आज के समय में जो ब्राह्मणवादी सत्ता के समर्थक और पोषक हैं वे देशभक्त हैं और जो ब्राह्मणवाद के विरोधी और मानवतावादी हैं वे देशद्रोही हैं। कवि की चेतन-दृष्टि इस महत्वपूर्ण बिंदु की ओर गयी है। ‘सवाल जवाब’ कविता में वह कहते हैं- ‘अपने ही देश की/ स्थापित सरकार से/ अपने वाजिब हक़ के लिए/ जो सालों साल लड़ते हैं/ उन्हें राष्ट्रद्रोही कहते हैं।’ (सवाल-जवाब, पृष्ठ-58)
न्याय की आवाज़ों को अनसुना करना या दबाना अन्याय का पोषण और उसे बढ़ावा देना है। न्याय की आवाज़ें यदि नहीं सुनी गयी तो एक दिन विस्फोट करेंगी। ‘इंसाफ़ के लिए/ रास्तों पर निकल आना/ गुनाह है क्या?/ऐसा ही आलम रहा तो/ देखना एक दिन/ हल की जगह/ हाथों में हथियार होंगे।’ (हल और हथियार, पृष्ठ-40)
कवि अपने आसपास की दुनिया के प्रति सजग और संवेदनशील है। उसकी चेतना का विस्तार मानव समाज से लेकर पशु-पक्षी, प्रकृति, पर्यावरण से लेकर लोकतंत्र और राष्ट्रीयता तक है जिसे उनकी कविताओं में अनुभूत किया जा सकता है। ’देश महफ़ूज है/ पंद्रह अगस्त और/ छब्बीस जनवरी के गीतों में/ देश महफ़ूज है/ चौराहों पर/ बेचे जाने वाले/ तिरंगों में/ इससे ज़्यादा/ देश के बारे में/ कुछ नहीं कह पाउँगा।’ (देश महफ़ूज है, पृष्ठ-78) इन शब्दों के द्वारा कवि न कहकर भी वह सब कह जाता है जो कहा जाना चाहिए। कविता के ये शब्द प्रत्येक जागरूक नागरिक की आवाज है। यह कविता देश की अव्यवस्था और राष्ट्रीयता के पतन के विरुद्ध मुखर होने का आह्वान करती प्रतीत होती है।
कवि आशावादी है। उसे उम्मीद है एक न एक दिन असमानता, अन्याय और शोषण का नाश होगा और वंचितों को उनके वाजिब अधिकार प्राप्त होंगे। वह उस दिन के इंतजार में है। कवि की इस आशावादिता को उसकी इन काव्य पंक्तियों में देखा जा सकता है- ’ये कैसे पेड़ हैं। जिन्हें हमेशा इंतज़ार रहता है/ अपने जड़ों को और फैलाने का/ लेकिन मुझे इंतज़ार/ उस दिन का है/ जिस दिन क़ुदरत/ ज़हरीले पेड़ों की जड़ों से/ अपनी जमीन/ वापस लेगी/ नए बीज को अंकुरने के लिए।’ (ये कैसे पेड़ हैं, पृष्ठ-32-33)
कवि की कामना दुनिया को एक बेहतर और मानवीय दुनिया बनाने की है। वह तभी संभव है जब दुनिया से असमानता, अन्याय, शोषण और दमन का नाश हो। कवि चाहता है कि जो विषमता, अन्याय, शोषण और अमानवीयता उसने देखी और सही है वह आने वाली पीढ़ी को देखनी और सहनी नहीं पड़े। इसलिए वह चाहता है कि जीवित रहते हुए ही नहीं अपितु मरने के बाद भी वह इस देश और समाज के काम आए। वह धरती पर फिर से नया बनाकर आने की चाह रखता है। ताकि इस धरती और दुनिया को कुछ नयापन दे सके। नया इसलिए आवश्यक है क्योंकि जो कुछ है वह उतना सुंदर, और सुकून देने वाला नहीं है जो मनुष्यता के लिए आवश्यक है। दुनिया को प्रगतिशील बनाने के लिए उसका परिवर्तनशील होना अनिवार्य है।
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