पुस्तक समीक्षा : फरवरी नोट्स

विनय सिंह बैस, नई दिल्ली। डॉ. पवन विजय मेरे प्रिय लेखकों में से एक हैं। मैं पिछले कई वर्षों से उन्हें पढ़ता आ रहा हूं। फेसबुक पर उन्हें फॉलो करता हूं और उनकी दो किताबें ‘जोगी बीर’ और ‘मास्क मेनिफेस्टो’ पढ़ चुका हूं। प्रोफेसर पवन विजय गांव-गिरांव, प्रेम, राजनीति, धर्म, शिक्षा, इतिहास, समाज शास्त्र और साहित्य जैसे विविध क्षेत्रों पर समान अधिकार से लिखते हैं। वह विभिन्न न्यूज चैनलों पर समसामयिक विषयों पर विशेषज्ञ के रूप में अपने विचार व्यक्त करते भी नजर आते हैं। प्रिंट मीडिया में भी लिखते रहते हैं।

‘फरवरी नोट्स’ डॉ. पवन विजय की शायद पहले से इसी शीर्षक से प्रकाशित उपन्यास का ताजा और संशोधित संस्करण है। ‘फरवरी नोट्स’ फरवरी महीने की तरह ही छोटा है। कहने को तो इसमें 182 पृष्ठ हैं लेकिन फॉन्ट साइज बड़ा होने और रुचिकर विषय होने के कारण इसे ढाई से तीन घंटे में आराम से पढ़ा जा सकता है। कवर पेज आकर्षित करता है, अच्छा बन पड़ा है। प्रिंटिंग क्वालिटी बेहतर है और प्रूफ रीडिंग बहुत ढंग से हुई है इसलिए वर्तनी और प्रिंटिंग संबंधी त्रुटियां नहीं हैं।

उपन्यास की विषय वस्तु लीक से हटकर है। वर्तमान पीढ़ी के लिए फरवरी ‘वैलेंटाइन मंथ’ है, प्रेम का महीना है। ‘फरवरी नोट्स’ का भी मुख्य विषय प्रेम ही है। उपन्यास का कथानक अंशतः इलाहाबाद और मुख्यतः दिल्ली का है। चूँकि मैं खुद दिल्ली में रहता हूँ इसलिए सेंट्रल सेक्रेटेरिएट, कश्मीरी गेट, जंगपुरा, जोर बाग जैसे तमाम मेट्रो स्टेशनों पर हुए घटनाक्रम से खुद को कनेक्ट कर पाता हूं। प्रेम कहानी के दोनों मुख्य पात्र समर और आरती अधेड़ हैं, शादीशुदा हैं, पढ़े-लिखे हैं और सम्मानजनक क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं। इसलिए भी उनके मनोभावों को समझना मुझ जैसे लोगों के लिए आसान हो जाता है।

स्मार्टफोन युग वाले आज के युवाओं को उपन्यास का ‘पत्र अध्याय’ शायद किसी दूसरे ग्रह की विषय वस्तु लगे। उन पत्रों की भाषा और भाव को शायद ही वे समझ पाएं। उन्हें भाषा क्लिष्ट और भाव अबूझ पहेली लग सकते हैं। लेकिन मेरे जैसे लोग जो 40 की वय को पार कर चुके हैं, जिन्होंने अपनों को पत्र लिखे हैं, पत्रों की भाषा और उसकी खुशबू को पहचानते हैं, वह इस उपन्यास से खुद को जरूर जोड़ पाएंगे।

ग्रामीण और कस्बाई प्रेम कहानियों की तरह इस उपन्यास की प्रेम कहानी सीधी, सरल और सपाट नहीं है बल्कि दिल्ली जैसे बड़े और अव्यवस्थित शहर की तरह उलझी हुई है, टेढ़े मेढ़े रास्तों से होकर गुजरती है। हालांकि उपन्यास की नायिका आरती एक जगह नायक समर को स्पष्ट कर देती है कि उसका प्रेम शर्तरहित, निःस्वार्थ और निश्छल है :-

“मैंने सही गलत अच्छा बुरा सब इस बात पर छोड़ दिया कि तुम मेरे लिए इन सब से ऊपर हो और सुनो! तुम मुझसे न मिलो, न प्यार करो, न बात करो, छुओ नही, देखो नही, फिर भी मेरी चाहत कम नही होगी। तुम्हारे लिए मेरा मुझ पर कोई वश नही। मैं अवश हूँ और जो अवश होता है उससे कोई गलती नही होती।”

लेकिन उनका यह प्रेम कई वर्जनाओं, सामाजिक मान्यताओं और भारतीय परंपराओं का उल्लंघन करता है। नायक और नायिका भी अपने संबंधों को लेकर पूर्ण आश्वस्त नहीं हैं, असमंजस में हैं। इसलिए समर और आरती का प्रेम सरपट नहीं दौड़ता है, निर्झर नहीं बहता है। उनके प्रेम का पहिया कभी दो चक्कर आगे चलता है तो कभी चार चक्कर पीछे खिसक जाता है।

भावुक और युवा प्रेमी मानते हैं कि ‘युद्ध और प्रेम में सब कुछ जायज होता है’। प्रेम पाने के लिए घर, परिवार यहां तक कि दुनिया भी छोड़नी पड़े तो छोड़ देना चाहिए। लेकिन क्या सचमुच ऐसा संभव है? क्या सच में समाज की परवाह किये बिना और परिवार की बलि देकर प्रेम पाना जायज है??
फरवरी नोट्स पढ़िए, शायद आपको इस यक्ष प्रश्न का उत्तर मिल जाये।

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