बिहार दिवस विशेष : मुझे ‘बिहारी’ कहलाने पर गर्व होता है

श्रीराम पुकार शर्मा, कोलकाता। मैं भी एक बिहार-पुत्र हूँ। मेरा यह बिहार क्षेत्र वैदिक काल में ‘विहार’ या ‘विहारक’ के नाम से जाना जाता था, जिसका अर्थ है ‘आश्रमों या मठों की भूमि’। हमारा बिहार पितरों के मोक्ष की पावन भूमि (गयाधाम), पौराणिक धरोहर ‘देव’ सूर्यमंदिर (औरंगाबाद), उलार सूर्य मंदिर (पालीगंज), मुण्डेश्वरी भवानी मंदिर, (कैमूर), द्वादश ज्योतिर्लिंग बैद्यनाथ धाम (देवघर, तत्कालीन बिहार) राजा हरिश्चंद्र पुत्र रोहिताश्व का ‘रोहतास दुर्ग’ और महर्षि वाल्मीकि की तप की भूमि रही है। हमारे बिहार का प्राचीन इतिहास जनक नंदिनी सीता के स्वयंवर के मंगल गीतों को श्रवण कर राजगृह के अखाड़े में जरासंघ और महाबली भीमसेन के मलयुद्ध को देखते हुए सुजाता के मधुर खीर से ज्ञान प्राप्त कर आगे बढ़ता है।

बिहार (मगध) की विराट और शक्तिशाली सेना के बारे में सुनकर ही विश्व विजेता बनने चला ‘सिकंदर’ की विशाल खूंखार सेना नत-मस्तक होकर आगे बढ़ने से इंकार कर दी थी और उसे वापस लौटना पड़ा था। कालांतर में ‘अर्थशास्त्र’ के रचयिता ‘राजा निर्माता’ कौटिल्य (चाणक्य) के मार्गदर्शन में सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने मगध को केंद्र कर विराट मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी। जिसे अशोक महान ने सजाया और संवारा। आज स्वतंत्र भारत के राष्ट्रीय चिन्ह ‘अशोक स्तंभ’ और राष्ट्रीय ध्वज में ‘अशोक चक्र’ सम्राट अशोक की ही देन है, जिन्हें बिहार की धरती से ही प्राप्त किया गया है। फिर यह विद्व आचार्य चाणक्य की नीति को धारण कर, बाणभट्ट के दिव्य ज्ञान और ज्योतिषाचार्य आर्यभट्ट की गिनती का सहारा लिये विश्व के प्रथम गणराज्य का पोषक बन कर वर्तमान भारत सहित विश्व के शासन-प्रबंध का विशेष शक्ति सूत्र बने विद्वजनों के द्वारा विशेष रूप में समादृत है।

विश्वप्रसिद्ध गणिका सुंदरी ‘आम्रपाली’ की नगरी बिहार की ‘वैशाली’ ही रही है। आम्रपाली ने अपनी सुंदरता और चातुर्य के बल पर प्राचीन काल में यह साबित कर दिया था कि नारी-शक्ति भी जीवन के हर क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित कर सकती है। वह सिलसिला आज भी वर्तमान है।

हमारे बिहार की पावन धरती राजा जनक द्वारा पूजित, महाबली जरासंघ, दानवीर कर्ण द्वारा पालित-पोषित, भगवान बुद्ध की तप और ज्ञान प्राप्ति की, महावीर स्वामी के प्रकट्य तथा निर्वाण की, विश्व के प्रथम गणराज्य की पोषक की, सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य, सम्राट अशोक, सम्राट समुद्रगुप्त द्वारा शासित, कालांतर में वीर कुँवर सिंह, महात्मा गाँधी, राजेन्द्र प्रसाद, जय प्रकाश नारायण, स्वामी सहजानन्द की कर्मभूमि रही है। जो कभी नालंदा, विक्रमशीला, उदंतगिरि, वज्रासन (मगध) जैसे विश्व प्रसिद्ध ज्ञान-शिक्षा के केंद्रों से सुनियोजित, कभी आचार्य चाणक्य, विद्व बाणभट्ट, ज्योतिषाचार्य आर्यभट्ट के तेज से उत्प्लावित यह स्वर्ण सदृश सुनहली फसलों की शस्य-श्यामला भूमि न केवल भारतवर्ष, बल्कि विश्व के लिए गर्व की भूमि रही है। आज भी भारत के केन्द्रीय शासन-व्यवस्था को सुदृढ़ करने में बिहार प्रांत के निवासियों की योग्यता और कर्मठता सर्वोच्च ही रही है।

आज दुनिया भर में सत्य, अहिंसा और प्रेम के परम संदेश को सुनने वाले बौद्ध धर्म का बीजांकुरण बिहार के ही ‘बौद्धगया’ में ही हुआ है। इसी तरह से सम्यक-दर्शन (सही विश्वास), सम्यक-ज्ञान (सही ज्ञान) और सम्यक-चरित्र (सही आचरण) के त्रि-संदेश को प्रसारित करने वाले महावीर स्वामी का आविर्भाव भी इसी बिहार के कुंडल ग्राम, (वैशाली) में हुआ था। यही उनकी कर्म-भूमि और निर्वाण की भूमि (पावा) भी रही है। सिखों के दसवें और आखिरी ‘गुरु’ गुरु गोबिंद सिंह का प्रकट्यस्थल बिहार की राजधानी पटना के पूर्वी भाग (पटना साहिब) में हुआ था।

12 वीं सदी के महान भारतीय सूफी संत ‘हजरत मखदूम कमालुद्दीन यह्या’ का आस्ताना (दरगाह या मजार) पटना के पास ‘मनेर’ में स्थित है, जिसे भारत में ‘खानकाहों (दरगाहों या मजारों) की जननी’ माना जाता है। एक अन्य ‘हजरत मखदूम शेख शरीफुद्दीन यह्या मनेरी रहमतुल्लाह अलैहि’ का आस्ताना बिहार शरीफ में स्थित है। ‘पादरी की हवेली’ के नाम से विख्यात लगभग 300 वर्ष से भी पुराना चर्च पटना सिटी में है।

बिहार प्रांत के निवासियों में धर्म-सहिष्णुता प्रगाढ़ रही है। सभी मिलजुल कर होली-दिवाली, बैशाखी, ईद-मुहर्रम, क्रिसमस आदि पर्व मनाते हैं। ऐसे में बिहार प्रांत का आस्था का प्रतीक ‘छठ पर्व’ के समय ‘उठ्हूँ सुरुज देव अरग के बेर’ जैसे सामूहिक सुरमय गीतों से पूरा बिहार ही ‘उठने’ लगता है। सारा प्रांत ही ‘ठेकुआमय’ हो जाता है, जिसका प्रभाव देश सहित विदेश के विभिन्न भागों में भी दृष्टिगोचर होता है।

बिहार प्रांत के नालंदा, विक्रमशीला, उदंतगिरी आदि विश्व-विद्यालयों का नाम विद्या-प्रसार के क्षेत्र में देश-देशान्तर की परिधि को तोड़ते हुए विश्व भर में चर्चित रहा है। यहाँ विद्यार्थियों को निःशुल्क और उत्तम शिक्षा प्रदान कर विश्व मानवता को जागृत करने जैसे महत्वपूर्ण कार्य किया। फाह्यान, ह्वेन त्सांग, इत्सिंग, मेगास्थनीज, तारानाथ आदि विदेशी शिक्षा-प्रेमी भारतीय प्रगाढ़ ज्ञान-पुंज से समृद्ध होकर अपने स्वदेश में ज्ञान-धन को चतुर्दिक प्रसारित किए।

कालांतर में इन विशाल शिक्षा केंद्रों को मानवता और ज्ञान-विज्ञान के प्रबल शत्रु क्रूर और अत्याचारी मुस्लिम शासकों ने विनष्ट कर खंडहरों में बदल दिया। आज भी उनके खंडहरों से उनके विराट शैक्षणिक इतिहास की ध्वनियाँ अनुगूँजित होती ही रहती हैं । मुगल काल में शेरशाह सूरी लोकप्रिय शासक हुआ था, जिसका शासन केंद्र आधुनिक मध्य-पश्चिम बिहार का सासाराम था। उसको भूमि-सुधार, सड़क निर्माण आदि सार्वजनिक क्षेत्र में विशेष निर्माण कार्य के लिए इतिहास में जाना जाता है।

ब्रिटिश शासन काल के दौरान हमारा बिहार प्रांत दीर्घकाल तक तत्कालीन ‘बंगाल प्रेसीडेंसी’ का ही हिस्सा रहा था, जिसके शासन की बागडोर तत्कालीन भारत की राजधानी कलकत्ता वर्तमान में कोलकाता थी। इस दौरान बिहार के जन-जीवन, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक गतिविधियों पर पूरी तरह से बंगाल का ही दबदबा बना रहा। लेकिन तत्कालीन राजधानी कलकत्ता से दूरी के कारण इसका निरंतर आर्थिक शोषण तो होता रहा, परंतु सामाजिक और शैक्षणिक क्षेत्र में बिहार पिछड़ता ही रहा। 22 मार्च, सन् 1912 में बंगाल प्रांत से अलग होने के बाद वर्तमान उड़ीसा और झारखंड युक्त बिहार एक समवेत विशाल राज्य बना।

तब इसकी भौगोलिक सीमा उत्तर में हिमालय की पादभूमि से लेकर दक्षिण में लहराते बंगाल की खाड़ी तट तक फैली हुई थी। जिसके बाद 1935 में भाषा के आधार पर बिहार और उड़ीसा को दो अलग-अलग राज्यों में बाँट दिया गया। 1947 में देश की आजादी के बाद भी एक राज्य के तौर पर बिहार की भौगौलिक सीमाएं पूर्वरत ही बनी रहीं। इसके बाद 1956 में भाषाई आधार पर बिहार के पुरुलिया जिले के कुछ हिस्सों को पश्चिम बंगाल में जोड़ दिया गया।

विभाजन की क्रूर छुरी सन् 2000 में एक बार फिर तेज हुई और फिर शासन व्यवस्था, भाषा, संस्कृति और आर्थिक उन्नति के नाम पर तत्कालीन दक्षिणी बिहार को ‘झारखंड’ के नाम पर एक अलग राज्य बना कर प्राचीन बिहार (मगध) साम्राज्य की जो सीमाएँ कभी पूर्व में बर्मा से लेकर पश्चिम में सिंधु नदी तक और उत्तर में हिमालय की पाद-भूमि से लेकर दक्षिण में विंध्य पर्वत तक सुविस्तृत फैली हुई थीं, वह अब सिमट कर थोड़ी-सी गांगेय प्रदेश तक सीमित रह गई है।

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के क्षेत्र में भी बिहार प्रांत का विशेष ऐतिहासिक योगदान रहा है। 80 वर्ष की ढलती आयु में आरा के जगदीशपुर के वीर कुँवर सिंह ने 1857 में बिहार में अंग्रेजों के खिलाफ जैसा संग्राम का नेतृत्व किया था, उसे देखकर अंग्रेज अधिकारीगण भी दांतों तले अंगुली दबा लिया करते थे। बिहार की धरती पर ही चंपारण के आंदोलन और मोतीहारी में जेल यात्रा ने ही मोहनदास करमचंद गाँधी जी को ‘भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र पुरुष’ बनाया। बाद में वे ‘बापू’, ‘महात्मा’ और फिर ‘राष्ट्रपिता’ जैसे गरिमामय सम्मानीय विशेष्य से विभूषित हुए।

लेकिन निरंतर आक्रमण, शोषण, अत्याचार, विभाजन आदि के क्रूर आघातों को सहते हुए भी बिहार ने समयानुकूल कुछ ऐसे विशेष व्यक्तित्व को जन्म दिया, जिनके कार्यों से न केवल बिहार, बल्कि सम्पूर्ण भारत देश ही गर्व अनुभव करता है। इस सिलसिले में बिहार के सारन जिले के जिरादेई के डॉ. राजेंद्र प्रसाद का नाम सादर लिया जाता है। वह स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने। शाहाबाद (आरा) जिले के मुरार गाँव के डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा, जो स्वतंत्र भारत के संविधान सभा के प्रथम अध्यक्ष बने थे। ‘बिहार केसरी श्रीकृष्ण सिंह, बाबू अनुग्रह नारायण सिंह आदि का भी नाम राजनीति और सामाजिक क्षेत्र में सादर सहित लिया जाता है।

आजादी के बाद अन्याय के विरूद्ध जयप्रकाश नारायण के छात्र आंदोलन को भला कौन भुला सकता है, जिसका प्रभाव न सिर्फ बिहार, बल्कि पूरे देश में फैला था। इससे देश की राजनीति और सामाजिक स्थिति में काफी बदलाव हुए। समाज के उपेक्षित वर्ग भी राजनीति और प्रशासन के कर्णधार बनने लगे। आज भी दूरगामी विकासशील सोच रखने वाले राजनेताओं और उच्च अधिकारियों के प्रयास से वर्तमान में बिहार प्रांत में सर्वक्षेत्र में विकास की पहिया द्रुतगति से चलायमान है।

बिहार की शस्यश्यामला पावन भूमि ने हर काल-खंडों में हर क्षेत्र में स्वर्णिम इतिहास गढ़ने वाले अनगिनत विशिष्ठ व्यक्तित्व को जन्म दिया है। कुछ ख्याति प्राप्त बिहारियों में प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों में वीर कुँवर सिंह, अनुग्रह नारायण सिंह, बसावन सिंह, राजेन्द्र प्रसाद, राजकुमार शुक्ल, रमेश चन्द्र झा, स्वामी सहजानन्द सरस्वती, श्रीकृष्ण सिन्हा, ठाकुर युगल किशोर सिंह, सत्येन्द्र नारायण सिन्हा, राम दुलारी सिन्हा, देवीपद चौधरी, राय गोविंद सिंह, रामानंद सिंह, राजेन्द्र सिंह, जगपति कुमार, सतीश प्रसाद झा, उमाकांत सिंह आदि का नाम गर्व से लिया जाता है।

बिहार-पुत्रों ने विविध कार्य-क्षेत्रों में अपने विशेष योगदान के लिए देश के नागरिक और गैर नागरिक सर्वोच्च सम्मनों से विभूषित होकर बिहार की गरिमा को बढ़ाया है। अब तक चार बिहार-पुत्रों यथा- विधान चंद्र राय (1961), डॉ. राजेन्द्र प्रसाद (1962), जय प्रकाश नारायण (1999) और शहनाई वादक बिस्मिल्ला खाँ (2001) ने ‘भारत रत्न’ प्राप्त कर चुके हैं। भागलपुर में जन्मे ‘दादामुनि’ के नाम से विख्यात अभिनेता अशोक कुमार ने फिल्मों में अपने विशेष उपलब्धियों के लिए ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ से सम्मानित हो कर बिहार की धरती का सम्मान बढ़ाया है। साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा ज्ञानपीठ पुरस्कार दोनों से ही सम्मानित रामधारी सिंह ‘दिनकर’, जबकि साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित अरुण कमल, ज्ञानेंद्रपति, अनामिका आदि ने समय-समय पर बिहार की धरती को साहित्यिक गरिमा से परिपूर्ण किया है । गैर नागरिक अर्थात सैन्य सम्मनों में लांस नायक अल्बर्ट एक्का (तत्कालीन बिहार) मातृभूमि की रक्षा करते हुए अद्भुत सैन्य पराक्रम को प्रदर्शित करते हुए मरणोपरांत ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित हुए थे, जबकि ‘अशोक चक्र’ से सम्मानित होने वाले देश के प्रथम सैनिक बिहार के श्याम बहादुर सिंह थे, फिर रणधीर वर्मा को भी ‘अशोक चक्र’ से सम्मानित किया गया था।

कला और संस्कृति के क्षेत्र में राधा मोहन प्रसाद, उपेन्द्र महारथी, श्याम शर्मा, ईश्वरी प्रसाद वर्मा, सीता देवी, पं. रामचतुर मालिक, भिखारी ठाकुर, श्याम मालिक, कुंज बिहारी मलिक, रामचरित्र मलिक, बद्री मिश्र, शिवदीन पाठक, विंध्यवासिनी देवी, बिस्मिल्ला खान, चित्रगुप्त, शमसूल हुदा बिहारी, शारदा सिन्हा, गायत्री ठाकुर, भारत शर्मा, उदित नारायण, दलेर मेहंदी (पंजाबी पॉप) आदि ने अपने-अपने कीर्तिमान स्थापित किए हैं। इसी तरह से विज्ञान के क्षेत्र में गोविंद बिहारी लाल, बिनदेश्वरी पाठक (सुलभ शौचालय), वशिष्ठ नारायण सिंह (गणितज्ञ), अमिताभ (इसरो), अतुल कुमार वर्मा (दवा), मानस बिहारी वर्मा (वैमानिक विज्ञान) आदि बिहारियों के योगदान देश सहित वैश्वीय स्तर पर सदैव स्मरणीय ही रहेगा। खेलकूद के मैदान में भी बिहारियों ने कई अविस्मरणीय कीर्तिमान स्थापित किए हैं। कीर्ति आजाद, महेंद्र सिंह धोनी, सबा करीम, ईशान किशन (क्रिकेट), जफर इकबाल (हॉकी), शिवनाथ सिंह (धावक), श्रेयसी सिंह, (निशानेबाजी) आदि से लेकर कैरम प्रजेता रश्मी कुमारी का नाम समादृत है ।

फिल्म जगत से जुड़े प्रमुख बिहारी व्यक्तित्वों में चित्रगुप्त, भगवान सिन्हा, अशोक कुमार, गणेश प्रसाद सिंह, शैलेन्द्र कुमार, शत्रुघ्न सिन्हा, अभी भट्टाचार्य, तपन सिन्हा, साधना सिंह, प्यारे मोहन सहाय, शेखर सुमन, मनोज बाजपेयी, आलोकनाथ, अखिलेन्द्र मिश्र, मनोज तिवारी ‘मृदुल’, प्रकाश झा, पंकज त्रिपाठी, आर. माधवन, संजय मिश्रा, राम गोपाल बजाज, दलेर मेहंदी, स्व. सुशांत सिन्हा आदि का नाम सुनहरे परदे पर हमेशा जीवंत ही रहेगा ।

बिहारी मूल के विदेशों शासकों में अनिरुद्ध (अहीर यदुवंशी जाति), परमानन्द झा, नेपाल के प्रथम उपराष्ट्रपति एवं नेपाल के उच्चतम् न्यायालय के भूतपूर्व न्यायधीश (दरभंगा, बिहार) नवीन चन्द्र राम गुलाम, मौरिसस के प्रधान मंत्री, (आरा, बिहार) शिवसागर रामगुलाम, मारिशस के प्रथम मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री एवं छठे गवर्नर-जनरल (भारतीय बिहारी प्रवासी) गिरिजा प्रसाद कोइराला, नेपाल के प्रधान मंत्री, (सहरसा, बिहार) आदि का नाम भी समादृत है।

पर यह भी सत्य है कि बिहार, जो कभी विश्व मानव को मार्ग-दर्शन करने की अतुलनीय क्षमता रखते हुए देश के स्वर्णिम युग का निर्माता रहा है, वह आज जातिवादी, क्षेत्रवादी, प्रांतवादी राजनीति के दलदल में फंस कर पिछड़ेपन का पर्याय बन गया है । आज वह दुनिया की श्रेष्ठ प्रतिभा और अतुल श्रमशक्ति के जन्मदात्री होते हुए भी पिछड़ेपन के गंभीर अंधकार में कहीं भटक-सा गया है। आवश्यकता है, समर्थ बिहार-पुत्रों को आपसी राजनीति और जातिवादी रंजिश को त्याग कर राज्य हीत में कार्य करने की, जिससे हमारा पावन बिहार-भूमि अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त कर सके और हम ‘बिहारी’ कहलाने पर ‘गर्व’ महसूस कर सके।

‘बिहार दिवस’ केवल हर्षोल्लास की कोई एक तिथि मात्र नहीं है, बल्कि बिहार की गौरवशाली ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक और आर्थिक उपलब्धियों को दर्शाने का उत्सव है । यह दिन हमें बिहार की गौरवशाली परंपरा और संघर्षों की याद दिलाता है और साथ में ही हमें एक उज्ज्वल भविष्य निर्माण की दिशा में प्रेरित भी करता है। यह विशेष दिवस हमारे बिहार की पहचान को और अधिक सुदृढ़ करता है और हमें अपनी जड़ों से जोड़ता है।

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

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