श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा । आजीवन ब्रह्मचर्य और वाक् पटुता के सम्मिलित व्यक्तित्व का विराट दर्शन, जिसमें मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की संकल्पशक्ति, भगवान श्रीकृष्ण की राजनीतिक कुशलता और आचार्य चाणक्य की दृढ़ कूटनीति का परस्पर त्रिवेणी प्रवाहित होते रहा तथा जिसने अपने जीवन का प्रति क्षण और शरीर का प्रति कण राष्ट्रसेवा के महायज्ञ में अर्पित करते रहा हो, उस महान ‘अटल’ व्यक्तित्व का ही नाम ‘अटल बिहारी वाजपेयी’ है। जिसके विराट स्वरूप को विशाल भारत के रूप में देखा जा सकता है –
“भारत जमीन का टुकड़ा नहीं, जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।
हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है, पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।
पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं, कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है।
यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है, यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है।”
उत्तर प्रदेश के आगरा जनपद के सुप्रसिद्ध प्राचीन तीर्थस्थान ‘बटेश्वर’ का वैदिक-सनातन धर्मनिष्ठ कान्यकुब्ज ब्राह्मण पं. श्यामलाल जी के पुत्र पं. कृष्ण बिहारी जी जीविकोपार्जन हेतु ग्वालियर में एक अध्यापक पद पर नियुक्त हुए थे। वे ग्वालियर राज्य के सम्मानित कवि भी थे। यहीं ग्वालियर के ‘शिंदे की छावनी’ में पं. कृष्ण बिहारी तथा कृष्णा देवी की तृतीय संतान के रूप में 25 दिसम्बर, 1924 को ब्रह्ममुहूर्त में एक दिव्य आत्मज का आविर्भाव हुआ था। भविष्य में उस वत्स के मनोबल की अटलता की कामना करते हुए ब्राह्मण दंपति ने उसका नाम ‘अटल बिहारी’ रखा। परिवार का विशुद्ध भारतीय वातावरण बालक अटल के रग-रग में बचपन से ही बसने लगा था। चुकी वह ब्राह्मण परिवार ‘संघ’ के प्रति विशेष निष्ठावान था। परिणामत: बचपन से ही बालक का भी झुकाव ‘संघ’ की ओर हुआ और कालांतर में वे ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के एक कर्मठ ‘स्वयंसेवक’ बन गए। फिर वंशानुक्रम और वातावरण दोनों ने मिलकर अटल बिहारी जी को बाल्यावस्था से ही एक प्रखर ‘राष्ट्रभक्त’ बना दिया।
प्रारम्भिक जीवन से ही अटल बिहारी पर माँ भारती की भी विशेष कृपा रहा करती थी। बचपन से ही वे देशभक्ति और धर्मपरायण कविताओं के वाहक थे। अपने इंटरमीडिएट के दिनों में ही उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कविता “हिंदू, तन-मन, हिंदू जीवन, रग-रग हिंदू मेरा परिचय” लिखी और सन् 1942 में लखनऊ के कालीचरण कॉलेज के आई.टी.सी. कैम्प में अपने परमपूज्य गुरुजी के समक्ष उन्होंने इसका जोशपूर्वक वाचन किया था।
“होकर स्वतंत्र मैंने कब चाहा है कर लूँ जग को गुलाम।
मैंने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम।
गोपाल-राम के नामों पर कब मैंने अत्याचार किए?
कब दुनिया को हिंदू करने घर-घर में नरसंहार किए?
कोई बतलाए काबुल में जाकर कितनी तोड़ीं मस्जिद?
भू-भाग नहीं, शत-शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।
हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन, रग-रग हिंदू मेरा परिचय।”
अगस्त, 1942 में महात्मा गाँधी जी ने जब ‘अँग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा दिया, तब उस ‘अगस्त क्रांति’ की लपटों में अन्य भारतीय शहरों की तरह ग्वालियर भी धधक उठा था। अटल बिहारी आंदोलनकारी छात्र वर्ग के अगुवा थे। आंदोलन के उग्र रूप धारण करते ही किसी अनहोनी की कल्पना कर उनके पिता उन्हें पैतृक गाँव बटेश्वर भेज दिया। लेकिन ‘अगस्त क्रांति’ की अग्नि से वह भी अछूता न रहा था, जिसकी लपेट में वे भी आ गए थे। उन्हें नाबालिग के कारण आगरा जेल के ‘बच्चा-बैरक’ में रखा गया था। देश-प्रेम के कारण उन्हें चौबीस दिनों की प्रथम जेलयात्रा हुई थी, जिसे वे आजीवन अपना सौभाग्य मानते रहे थे।
राष्ट्रभक्ति की प्रखर भावना को देख कर ही ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के चिन्तक और संगठनकर्ता एवं एकात्म मानववाद के प्रणेता पं. दीनदयाल उपाध्यान सन् 1946 में अटल बिहारी जी को लखनऊ में ‘राष्ट्रधर्म’ का प्रथम संपादक नियुक्त किया। उनके कुशल संपादन से ‘राष्ट्रधर्म’ कुछ ही समय में अपने राष्ट्रीय स्वरूप को प्राप्त कर लिया। फिर सन 1950 ई. में उन्होंने ‘दैनिक स्वदेश’ के संपादक का कार्यभार संभाला। परन्तु आर्थिक संकट के कारण बड़े ही दुखी मन से उन्हें उसे बंद करना पड़ा था। फिर अनुभव की परिपक्वता, विचारों की गंभीरता और भाषा की स्पष्टता ने उन्हें लखनऊ से ही प्रकाशित ‘वीर अर्जुन’ का सफल संपादक के रूप में स्थापित किया।
अटल बिहारी जी ‘भारतीय जनसंघ’ के संस्थापक सदस्य थे। राष्ट्रीय सम्मान के संरक्षक आचार्य पूज्य डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तरुण अटल बिहारी जी में कर्मठता, निष्ठा और भारतीय संस्कृति के उपासक जैसे गुणों को भाँप लिया था और उन्हें अपने निजी सचिव के रूप में नियुक्त किया। डॉ. मुखर्जी की सभाओं में उमड़ती जनता को अटल बिहारी जी भी अक्सर संबोधित किया करते थे। अटल बिहारी जब अपना हाथ लहराते हुए, विनोदपूर्ण शैली में चुटीले व्यंग्य किया करते थे, तो तालियों की गड़गड़ाहट से सभा-स्थल गूँज उठता था। बहुत जल्दी ही उनकी पहचान राष्ट्रीय स्तर पर ‘संघ’ के विशेष प्रवक्ता के रूप में बन गई। उनके देश-प्रेम भाषणों का कुछ ऐसा जादू रहता कि लोग उन्हें सुनते ही रहना चाहते थे।
“मैं अखिल विश्व का गुरू महान, देता विद्या का अमर दान,
मैंने दिखलाया मुक्ति मार्ग, मैंने सिखलाया ब्रह्म ज्ञान।”
सन 1952 में अटल बिहारी जी भारतीय जनसंघ के प्रत्याशी के रूप में चुनावी मैदान में उतरे थे, किंतु साधनहीनता के कारण वे विजयी न हो सके। सन् 1957 में द्वितीय आम चुनाव में बलरामपुर से जनसंघ के प्रत्याशी के रूप उन्हें विजयश्री प्राप्त हुई। तब उन्होंने अपार जनसमूह से कहा था – ‘यह विजय मेरी नहीं, यह बलरामपुर क्षेत्र के समस्त नागरिकों की विजय है। मैं वचन देता हूँ कि एक सांसद के रूप में इस क्षेत्र की सेवा एक राष्ट्रभक्त सेवक के रूप में निरंतर करूँगा।’ और ऐसा ही उन्होंने किया भी।
धोती, कुर्ता और सदरी पहने, भरे गोल चेहरे वाले गौरवर्णी अटल बिहारी जी संसद में अपना प्रथम भाषण देने जब उठे, तब लोग हिंदी में उन्हें नहीं सुनना चाहते थे, किंतु वे थमें नहीं और फिर एक दिन ऐसा भी आया कि संसद सदस्यों ने उनकी भाषण-शैली और तथ्य प्रस्तुति कला की प्रशंसा करना शुरू कर दिया। फिर तो उनके भाषण सुनने के लिए सांसद दौड़-दौड़कर संसद कक्ष में पहुँच जाया करते थे। वे एक सर्वमान्य सर्वश्रेष्ठ सांसद रहें, जिनके भाषण के समय न कोई टोका-टाकी होती और न ही कोई शोर-शराबा ही। अटल बिहारी जी का एक ही अटल स्वप्न था –
“दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएँगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक, आजादी पर्व मनाएँगे॥
उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से, कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएँ, जो खोया उसका ध्यान करें॥”
हिन्दी को प्रथम बार विश्व मंच पर लाने का श्रेय अटल बिहारी वाजपेयी जी को ही जाता है। प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन 1975 में नागपुर में हुआ था। जिसमें प्रारित प्रस्ताव में कहा गया था, कि संयुक्त महासंघ में हिन्दी को अधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिलाया जाय। इसके दो वर्ष बाद ही अटल बिहारी वाजपेयी जी ने 4 अक्टूबर 1977 को जनता पार्टी की सरकार में विदेश मंत्री के रूप में संयुक्त राष्ट्र महासभा के अधिवेशन में में हिन्दी में जोरदार भाषण दिया था। उस भाषण से विश्व भर के हिन्दी प्रेमियों में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी थी।
6 अप्रैल 1980 का दिन अटल बिहारी वाजपेयी जी के जीवन में विशेष महत्वपूर्ण रहा है। इसी दिन बंबई में ‘भारतीय जनता पार्टी’ का जन्म हुआ और अटल बिहारी जी उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए थे। ऐसे अवसर पर उन्होंने अपनी उद्भावना को स्पष्ट करते हुए कहा था –
“आहुति बाकी यज्ञ अधूरा, अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज़्र बनाने-नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।”
देश के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू जी ने अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व और क्रियाशीलता को देखकर ही अपने जीवन काल में ही घोषणा की थी कि अटल बिहारी वाजपेयी में भारत के भावी प्रधान मंत्री बनाने की क्षमता दिखाई देती है, जो कालांतर में सत्य भी हुई। अटल बिहारी वाजपेयी जी समयानुसार भारत के तीन बार प्रधान मंत्री बने। सबसे पहले सन् 1996 में 13 दिनों के लिए, इसके बाद 1998 से 1999 में 13 महीनों के लिए और फिर 1999 से 2004 तक पूरे पांच वर्षों तक के लिए प्रधानमंत्री बने थे। प्रधान मंत्री के रूप में उनकी दूरगामी सोच, भारत को परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र, पोखरण टेस्ट, पाकिस्तान से सम्बन्धों में सुधार की पहल, कारगिल में भारत को मिली जीत, स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना और अंतर्राष्टीय स्तर पर भारत का कद बढ़ाने के लिये हमेशा याद किया जायेगा। उनकी संगठन क्षमता अद्वितीय थी, जिनमें न सिर्फ अपनी पार्टी को, बल्कि विपक्ष को भी साथ लेकर चलने की अद्भुत क्षमता थी।
वरिष्ठ और सर्वमान्य अटल बिहारी वाजपेयी जी राजनीति के क्षेत्र में चार दशक तक सक्रीय रहे। वह लोकसभा में नौ बार तथा राज्यसभा में दो बार चुने गए थे, जो अपने आप में एक कीर्तिमान है। 25 जनवरी, 1992 को उन्हें ‘पद्मविभूषण’ से अलंकृत किया गया। 28 सितंबर, 1992 को उन्होंने उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने ‘हिंदी गौरव’ के सम्मान से सम्मानित किया। 20 अप्रैल 1993 को उन्हें कानपुर विश्वविद्यालय ने मानद ‘डी.लिट्’ की उपाधि प्रदान की । 1 अगस्त 1994 को वाजपेयी को ‘लोकमान्य तिलक सम्मान’ से सम्मानित किया गया, जो उनके सेवाभावी, स्वार्थत्यागी तथा समर्पणशील सार्वजनिक जीवन के लिए था। 17 अगस्त, 1994 को संसद ने उन्हें सर्वसम्मति से ‘सर्वश्रेष्ठ सांसद’ का सम्मान दिया और 2015 में राष्ट्र ने उन्हें ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया।
समयानुसार सर्वश्रद्धेय अटल बिहारी वाजपेयी जी 2005 से राजनीति से सन्यास लेकर नयी दिल्ली में 6-A कृष्ण मेनन मार्ग स्थित सरकारी आवस में रहते थे। उन्होंने अपनी मौत को काफी करीब से देखा, परखा और देश की आवश्यकता को स्मरण कर ढेर दिनों तक उसे अपने सम्मुख खड़े प्रतिक्षारत्त रखा और फिर चतुर्दिक शान्ति को देख कर माँ भारती तथा भारतमाता के ओजस्वी सन्तान अटल बिहारी वाजपेयी जी 16 अगस्त 2018 को सूर्यास्त के साथ ही मौत के गले में अपनी बाहें डाले, अनंत अदृश्य परमपथ पर शांत और मौन गमन कर गए। शायद उन्होंने अपनी मौत से भी ठान ही लिया था –
“ठन गई! मौत से ठन गई!
जूझने का मेरा इरादा न था, मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई, यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं, ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ, लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?”
(अटल बिहारी वाजपेयी जयंती, 25 दिसम्बर, 2022)
श्रीराम पुकार शर्मा
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