
अशोक वर्मा “हमदर्द”, कोलकाता। गाँव के उत्तर छोर पर एक छोटा-सा मकान था, कच्ची दीवारें, टूटी छत, लेकिन हर कोने से एक महक आती थी – प्यार की महक। यहाँ रहते थे राघव और दीपक सगे भाई, जिनका रिश्ता खून से भी गाढ़ा था। माँ-बाप के गुजरने के बाद राघव ने ही दीपक को अपनी गोद में बिठाकर बड़ा किया था। राघव ने अपनी जवानी खेतों में गला दी, कभी खुद के लिए कुछ नहीं माँगा। बस एक सपना था – “मेरा दीपक पढ़ेगा, आगे बढ़ेगा, वो बड़े आदमी बनेगा।”
राघव खुद फटी बनियान पहनता, लेकिन दीपक के लिए नए जूते, नए कपड़े जरूर लाता। गाँव में लोग उसे चिढ़ाते – “राघव, तुझे क्या मिलेगा इस बलिदान का?” वो बस हँसता और कहता – “मुझे कुछ नहीं चाहिए, मेरा दीपक ही मेरी दुनिया है।”
समय बदला। दीपक ने शहर की यूनिवर्सिटी में दाखिला ले लिया। राघव ने शादी नहीं की, ताकि दीपक की पढ़ाई में कोई कमी न रहे। खुद मिट्टी के घर में रहा, पर दीपक के लिए हॉस्टल की फीस भेजी। एक दिन दीपक ने कहा, “भैया, अब मैं बड़ा अफसर बनूँगा। आपका सपना पूरा करूँगा।” राघव की आँखें चमक उठीं। उसने गाँव भर में मिठाई बाँटी – “मेरा दीपक बड़ा आदमी बन रहा है!”
धीरे-धीरे शहर ने दीपक को बदलना शुरू कर दिया। अब उसकी ज़िंदगी में नए दोस्त थे, नई महफिलें थीं। फोन पर बातें कम होने लगीं। राघव हर रविवार दीपक को फोन करता, “बेटा, कैसा है?”
दीपक कहता, “भैया, बहुत व्यस्त हूँ, बाद में बात करता हूँ।”
राघव हँसकर कहता, “ठीक है बेटा, मेहनत कर।” और फिर अकेले अपने पुराने आँगन में चुपचाप बैठ जाता।
एक दिन खेत में काम करते हुए राघव अचानक गिर पड़ा। पड़ोसी दौड़े। डॉक्टर आया, बोला – “इन्हें तुरंत शहर के अस्पताल ले जाओ। हालत गंभीर है।” पड़ोसियों ने दीपक को फोन किया – “बेटा, जल्दी आओ, तुम्हारे भैया बहुत बीमार हैं।”
दीपक उस समय किसी बड़ी मीटिंग में था। उसने झल्लाकर कहा, “मैं व्यस्त हूँ। आप अस्पताल भिजवा दीजिए। मैं कल देखूँगा।”
इन बातों को राघव ने सुना नहीं, पर उसके दिल ने महसूस किया – दीपक नहीं आएगा। राघव उस रात तड़पता रहा। हर आहट पर दरवाजे की ओर देखता रहा, हर पल यही सोचता – “दीपक आएगा…मेरा दीपक आएगा।”
आधी रात को राघव की तबीयत और बिगड़ गई। उसकी साँसें टूटने लगीं। पड़ोसी, गाँव वाले सब इकट्ठा हो गए। राघव के होंठों पर बस एक नाम था – “दीपक…दीपक…”
सुबह होने से पहले ही राघव की आँखें हमेशा के लिए बंद हो गई। उसके चेहरे पर एक अधूरी मुस्कान थी – शायद आखिरी दम तक भाई का इंतजार करते हुए।
दीपक अगली शाम गाँव पहुँचा। जब वह टूटी हुई चारपाई पर पड़े भाई का निर्जीव शरीर देखता है, तो उसकी दुनिया जैसे थम जाती है। वह फूट-फूट कर रो पड़ता है – “भैया, माफ कर दो… मैं आ नहीं सका… माफ कर दो…” लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी। एक भाई, जिसने अपना पूरा जीवन दीपक के नाम कर दिया था, अब बस एक स्मृति बन गया था।
अगले कुछ दिनों में दीपक ने राघव का अंतिम संस्कार किया। उसने बड़े-बड़े लोगों को बुलाया, महँगे तामझाम किए। लेकिन जो प्यार, जो समय राघव को जीते जी देना चाहिए था, वो अब किसी काम का नहीं था।
दीपक हर रोज उस टूटे मकान के आँगन में बैठा करता, जहाँ कभी राघव ने उसे अपने काँधे पर बिठाकर घुमाया था। दीपक की आँखों में अब न चकाचौंध थी, न अहंकार। बस पछतावे की भारी चादर थी। वह खुद से बड़बड़ाता – “कितने भी दोस्त बना लो, कितनी भी दुनिया जीत लो, भाई से बड़ा कोई यार नहीं होता।”
समय बीतता रहा। दीपक ने सब कुछ छोड़ दिया – शहर की नौकरी, चमकती महफिलें और लौट आया उसी गाँव में। उसने राघव की अधूरी ज़मीन पर एक नया घर बनवाया, जिसके दरवाज़े पर एक छोटा सा बोर्ड टाँग दिया, “यह घर राघव का है।” हर सुबह वह राघव के पुराने तकिए को सीने से लगाकर जागता और हर रात आँगन में चुपचाप बैठकर सितारों से बातें करता। एक दिन गाँव के एक बच्चे ने पूछा, “चाचा, आपका कोई भाई नहीं था?”

दीपक मुस्कुराया, आँखों में चमक और आँसुओं की मिलीजुली नदी थी- “था बेटा…था नहीं, है। वो हर साँस में, हर धड़कन में, हर दुआ में है। क्योंकि भाई जिस्म का हिस्सा होता है। दुखों में सबसे बड़ा साझीदार होता है।” बच्चा मासूमियत से मुस्कुरा दिया। दीपक ने आसमान की ओर देखा – जहाँ उसे लगा, राघव अब भी मुस्कुरा रहा है। परिवार और भाई-बहन के रिश्ते दुनिया की सबसे बड़ी दौलत हैं। कभी समय रहते इन्हें नजर अंदाज मत करना। क्योंकि जब तक साँसें चलती हैं, भाई साथ है। उसके बाद सिर्फ पछतावा रह जाता है।
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