सुपरिचित कवयित्री रश्मि लता मिश्र से एक साक्षात्कार

सुपरिचित कवयित्री रश्मिलता मिश्र लंबे अर्से से विलासपुर में रहकर साहित्य साधना और समाज सेवा के कार्यों में संलग्न हैं। भजन हिंदी कविता का सबसे लोकप्रिय काव्यरूप है और इनके रचे भजनों में ईश्वरप्रेम, ज्ञान – भक्ति और अध्यात्म की पावनधारा प्रवाहित है। कोलकाता हिंदी न्यूज़ के लिए पत्रकार राजीव कुमार झा के द्वारा प्रस्तुत साक्षात्कार में इन्होंने अपने साहित्य लेखन के बारे में रोचक जानकारी दी है।

प्रश्न : सदियों से कविता भाव विचार की सर्जनाभूमि पर जीवन के जिस यथार्थ को लेकर प्रवाहित होती रही है, आप उसके स्वर का संधान किस तरह करना चाहेंगी?

उत्तर : सदियों से कविता अपने युग परिवेश को समेटे तात्कालिक परिस्थितियों जैसे आदि काल मे मुख्य उद्देश्य चारण द्वारा राजाओं की स्तुति तो भक्ति काल अर्थात स्वर्ण युग मे मीरा, सुर, तुलसी के भक्ति भाव द्वारा समाज को अघ्यात्म से जोड़ना साथ ही मुगलों द्वारा सूफी भावों की अभिव्यक्ति, द्विवेदी काल मे भाषा को परिष्कृत करने के उपाय, छाया वाद में कविता की छंद के बंधन से मुक्ति तो सम कालीन कविता के विकास में समयानुसार नए भावों, नए शिल्पों का प्रवेश, बदलाव का आगाज़ यथार्थ की करीबी सामाजिक, राजनैतिक सन्दर्भो में व्यंगोंक्तियाँ, युवा पीढ़ी का विद्रोह तो डिजिटल युग मे विज्ञापन का सशक्त साधन राजनीति पर व्यंग्य के प्रहार सामाजिक समस्याओं का समाहार से लेकर वैश्विक व्यवस्था तक के यथार्थ वर्णन में कविता अपने स्वरों के माध्यम से अपनी दमदार प्रस्तुति व प्रभाव के साथ उपस्थित है।

प्रश्न : साहित्य और विशेष रूप से कविता की ओर आपका लगाव कैसे कायम हुआ? हमारे जीवन संस्कारों के अलावा चेतना को समृद्ध बनाने में काव्य की भूमिका पर आपके विचारों को जानकर खुशी होगी!

उत्तर : शायद एक भावुक व दूसरों की खुशी में खुश होने वाला हृदय स्वाभाविक रूप से प्रकृति प्रेमी साहित्य का श्रृंगारिक रूप काव्य के प्रति सहज रूप से आकर्षित होता है यही एक स्वाभाविक कारण मेरे कविता के प्रति आकर्षण का भी था। मेरे विद्यार्थी जीवन के समय मेरे शहर बिलासपुर सीजी मे एक बार पूरी रात मुझे कवि सम्मेलन में हमारे प्रसिद्ध मंचीय कवि नीरज जी, जैमिनी हरियाणवी, गोपाल प्रसाद व्यास, बाल कवि बैरागी इन सभी को एक साथ सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिसने मेरे काव्य प्रेम रूपी बीज को एक विशाल वृक्ष के रूप में परिवर्तित कर दिया। चेतना को समृद्ध बनाने में काव्य की महती भूमिका किसी से छुपी नहीं है। राजा जयसिंह को अली कली ही सो विन्ध्यो आगे कौन…..बिहारी की रचना हो या चार बांस चौबीस गज चंद बरदाई की सांकेतिक पंक्तियां वीर रस के कवियों द्वारा रचित वीरों को प्रेरित करती रचनायें या सामाजिक क्षेत्र में जागरूकता जगाती विभिन्न प्रेरणादायक पंक्तियां सभी मानव चेतना को संचरित व समृद्ध करती हैं।

प्रश्न : अपनी बाल्यावस्था शिक्षा-दीक्षा और घर परिवार के अलावा परिवेश के बारे में बताएँ जिसके जीवनानुभवों से आप लेखन और अन्य प्रकार की भूमिका में प्रवृत्त हुई?

उत्तर : घर परिवार का परिवेश उस समय के अनुसार संयुक्त पारिवारिक वतावरण वाला, लड़कियों की काम चलाऊ शिक्षा का पक्षधर तथा समय रहते विवाह के कर्तव्य पूर्ति को तत्पर सोच वाला रहा। केवल पिता लिंग भेद को छोड़ शिक्षा के पक्ष में थे। बचपन तो लाड़- प्यार मस्ती के माहौल में गुजरा किंतु विवाहोपरांत सामाजिक कुरीतियों में जकड़ी सोच के कटु अनुभव से दो चार होना पड़ा। अचानक ख्वाबों की अल्हड़ दुनिया को कटु प्रौढ़ हकीकत का आवरण ओढ़ना पड़ा, पर माता पिता द्वारा दिये गए उच्च संस्कारों ने कभी भी कर्तव्य पथ से डिगने न दिया और स्व को छोड़ सबकी चिन्ता ने अपने जीवन अनुभवों को डायरी में ही समेटना शुरू कर दिया।

घूँघट की प्रथा से निपटते तक शिक्षिका की भूमिका, विभिन्न सामाजिक दायित्यों के बीच अनेक प्रकार के खट्टे-मीठे अनुभव कई बार मन के उद्वेलन को कागज पर उतारने को आतुर रहते। कभी वक्त मिल जाता कभी भाव कर्तव्यों की भूमिका तले विलीन हो जाते। बस यही क्रम चलता रहा। इस भवात्मक उड़ान को सही मायने में लेखन को पंख सेवा निवृत्ति व सभी बच्चों की शिक्षा-दीक्षा व शादी ब्याह के बाद ही मिल सकी जो अनवरत जारी है…

प्रश्न : आपके मनप्राण पर जिन लेखकों-कवियों का अमिट प्रभाव पड़ा उनके बारे में बताइए?

उत्तर : मैने यूँ तो हिंदी में स्नातकोतर तक की पढ़ाई के दौरान कई लेखकों व कवियों को पढ़ा लगभग हर काल के किसी न किसी रचनाकार ने चाहे वो सुर, मीरा, तुलसी बिहारी, केशव, रसखान हो या कहानीकार, उपन्यास सम्राट प्रेम चंद, जैनेंद्र जैन सभी ने प्रभावित किया किंतु सबसे ज्यादा निराला जी के क्रांतिकारी यथार्थवादी रचनाओं ने मन पर अमिट छाप छोड़ी। वह तोड़ती पत्थर की श्रमिक नायिका हो, या जूही की कली या अभिजात्य वर्गीय गुलाब या बेटी के दुख की व्यथा सरोज स्मृति इत्यादि।

प्रश्न : आप भजन लिखती रही हैं और भारतीय जनमानस में ईश्वर प्रेम के अलावा आध्यात्मिक राग विराग के प्रसार में भजन की भूमिका आपको कैसी प्रतीत होती है?

उत्तर : जी हाँ। जब तक मैं एक गृहिणी थी तब समय मिलने पर पास के ही राम मंदिर में लय आधारित रामायण पाठ व भजनों में शामिल होती थी, जहाँ प्रभु की सेवा में नए-नए स्वरचित भजन रूपी पुष्पों का प्रभु को अर्पण मेरी आराधना का एक स्वरूप था। भारतीय जनमानस में आज भी आध्यात्मिक राग विराग के प्रसार में भजन की भूमिका का बड़ा महत्व है। इस आपाधापी व रात दिन स्वार्थ से निहित माहौल, न अनेक प्रकार के दुष्कृत्यों की खबर से आहत मन जब सामूहिक या अकेले ही भजन श्रवण या स्वयं भजन करने में लीन होता है तो निश्चित रुप से उसका अध्यात्म के प्रति लगाव बढ़ता है व शांति की प्राप्ति होती है। तभी तो लाख कलयुग में कुकर्मों की दुहाई के बाद भी भारत मे विशेष रूप से भागवत, राम, शिव पुराणों का सामूहिक आयोजन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है, इस्कान मन्दिरो में तो विदेशियों को भी हरे रामा, हरे कृष्णा की धुन पर झूमते देखा जा सकता है।

प्रश्न : वर्तमान सामाजिक परिवेश काफी तेजी से बदलता जा रहा है और इस प्रक्रिया में समाज में दृष्टिगोचर होने वाली सकारात्मक – नकारात्मक तत्वों की पहचान किस तरह करना चाहेंगी?

उत्तर : जी हम यह कह सकते हैं कि वर्तमान सामाजिक परिवेश में बदलाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। सबसे पहले तो सामाजिक ढांचे के स्वरूप में ही लें। संयुक्त परिवार लगभग टूटकर एकल परिवार में परिवर्तित हो चुके हैं। एकल में भी सिंगल पैरेंट्स वाली प्रथा तेजी से पैर पसार रही है, नैतिक मूल्यों का हास होता जा रहा है, कुछ परिवर्तन निश्चित रूप से स्वागत योग्य हैं जैसे स्त्री शिक्षा के प्रति जागरूकता, पर्दा प्रथा का विरोध, लिंग भेद को दरकिनार करना, समाज के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी, जातिगत बन्धनों का ढीला पड़ना, अन्तर्जातीय विवाह का सम्मान
इत्यादि। नकारात्मक प्रभावों के तहत अभी भी दहेज के दानव से पूरी तरह मुक्ति न मिल पाना, भ्रूण हत्या, कन्या जन्म को अपराध मानना, वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या, राजनीति में भरे स्टेज से चुनावों के प्रचार प्रसार में पद की गरिमा को भूलकर भाषणों में स्तरहीन भाषा का प्रयोग इत्यादि।

प्रश्न : आपको साहित्य लेखन और सामाजिक कार्यों के लिए अनेक सम्मान मिले हैं। हमारे देश की संस्कृति जीवन मूल्यों और आदर्शों को रचने – गढ़ने में नारियों की भूमिका पर प्रकाश डालें?

उत्तर : साहित्य चूंकि समाज का दर्पण है और नारियां भी समाज से अलग तो नहीं, इसलिए सामाजिक अनुभव और तत्कालीन परिस्थितियों से रूबरू होे और उससे प्रभावित होने में महिलाएं भी पीछे नहीं रही और साहित्य में भी महिलाओं की भागीदारी हमेशा से रही है। आजादी की लड़ाई के समय जो साहित्य रचा गया उसमें देशकाल परिस्थितियों देश प्रेम की अभिव्यक्ति स्पष्ट परिलक्षित होती है चाहे वह महादेवी वर्मा हों, सुभद्रा कुमारी चौहान हों, उषा देवी कोई भी हों सब ने अपने समय को पहचाना जाना और उसके संबंध में अपनी अनुभूतियों को कागज पर उकेरा। उनके सशक्त लेखन को हम कमतर नहीं आंक सकते। स्वतंत्रता के बाद भी नारी लेखन में जो स्वर उभरे निश्चित रूप से वह भी समय और परिस्थिति से प्रभावित थे। पुरुष प्रधान समाज में पुरुष के इशारों पर ही नारियों की भूमिका निर्धारित की जाती थी। उस नारी ने अपनी पारंपरिक छवि को तोड़ा और यह पुरुष के लिए चौंकाने वाला विषय था कि नारी अभिव्यक्ति मुखर हो सकती है और वह भी स्वयं नारी के संदर्भ में नारी भावनाओं की यही अभिव्यक्ति थी जो सदियों से भीतर ही भीतर छटपटा रही थी।

मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, चंद्रकिरण, शशी प्रभा आदि का लेखन नारी अस्मिता की तलाश ही तो है इसके अलावा भी नारियों ने अपने पारंपरिक मूल्यों के बीच पिसते अस्तित्व को नए मूल्य तलाशने के पूरे अवसर दिए और कंधे से कंधा मिलाकर जो हर क्षेत्र में उनकी महती भूमिका है उस पर भी उन्होंने जब प्रकाश डाला जो उनके सकारात्मक लेखन का परिणाम था और समकालीन स्त्री कथा साहित्य के नए को भी मेहरून्निसा परवीन, सूर्यबाला, कृष्णा सोबती, शिवानी आदि नारियों ने समझा और नए मूल्यों को गढ़ा नई पहचान दी। इसी प्रकार नारी लेखन पुरुष से प्रतिद्वंदिता हेतु नहीं था बल्कि उसने अपनी बातें बेबाक रखने की कोशिश की, जिससे लोगों में नया आदर्शों चरित्रों का निर्माण किया जा सके और इस प्रकार हम देखें तो जीवन मूल्यों और आदर्शों को रचने करने में नारियों में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया और ऐसे-ऐसे चरित्रों का निर्माण किया जो अमिट हैं और हमारे जीवन तथा साहित्य की अमूल्य धरोहर भी।

प्रश्न : राजभाषा के रूप में देश के प्रति हिंदी की जो सेवा रही है आप उससे सबको अवगत कराएँ!

उत्तर : जी हाँ राजभाषा के रूप में देश के प्रति हिंदी की जो सेवा रही है वह हिंदी प्रेमियों की भावाभिव्यक्ति का व्यवहारिक स्वरूप है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सरकार द्वारा कई संस्थान खोले गए जो हिंदी
के प्रचार प्रसार हेतु प्रयासरत हैं। बैंक, रेलवे स्टेशन व अन्य सार्वजनिक जगहों पर घोषणाओं हेतु हिंदी का
प्रयोग इत्यादि इसी के उदाहरण कहे जा सकते हैं। सरकारी कार्यालयों में अधिकाधिक हिंदी का प्रयोग किया जा रहा है।
हिंदी प्रेमी इस हेतु लगातार आवाज उठाते रहे हैं। साहित्य के क्षेत्र में रात दिन हिंदी की सेवा की जा रही है, विभिन्न विधाओं में निरंतर एक से बढ़कर एक किताबें प्रकाशित हो रही हैं।

फ़िल्म, टी वी व सोशल मीडिया भी किसी से पीछे नहीं है। वह भी इसमें अपनी भागीदारी पूरी तरह से निभा रहा है। कमोबेश यही हाल अख़बार व पत्र पत्रिकाओं का भी है।
पाठशालाओं में भी हिंदी दिवस व अन्य राष्ट्रीय पर्वो पर हिंदी में विभिन्न प्रयियोगिताएँ आयोजित की जा जाती हैं। आज कल मोबाइल में हिंदी साधकों का तांता लगा हुआ है, प्रतिदिन ऑनलाइन काव्य गोष्ठियां व सेमिनार आयोजित किये जा रहे हैं। इसी तरह हिंदी काव्य सम्मेलनों ने इसकी प्रतिष्ठा में और भी चार चांद लगाए। कुल मिलाकर चौतरफा सभी अपने-अपने ढंग से हिंदी को राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने में लगे हुए हैं।

प्रश्न : समाज के उत्थान के लिए आप किन-किन बातों को जरूरी मानती हैं?

उत्तर : “समाज सामाजिक संबंधों का जाल है” अतः सामाजिक उत्थान हेतु सर्वप्रथम सम्बन्धो का उत्थान जरूरी है जिनमे आजकल पतन ज्यादा दिखाई पड़ रहा है। समाज को संभालना तो दूर लोग अपने सामाजिक स्तंभ अपने जनक अपने माता पिता को भी नहीं संभाल पा रहे हैं। परिवार के ढांचे में तो चरमराहट कब की आ चुकी है। माना समय परिवर्तन शील है और उसके साथ बदलना मानव मजबूरी भी है आवश्यकता भी है। किंतु समाज के उत्थान हेतु कुछ नैतिक मूल्य आवश्यक हैं। जिनके बिना उद्धार संभव नही मसलन मैं की जगह हम की भावना। समूह की खुशी हेतु अपनी खुशियों का कभी न कभी कुछ हिस्सा त्यागना। सामाजिक स्वस्थ परंपराओं का निर्वहन,कुरीतियों का विरोध, नए सकारात्मक मूल्यों का स्वागत। स्त्री शिक्षा का समर्थन, कुरीतियो जैसे दहेज प्रथा, भ्रूण हत्या आदि का विरोध, दिखावे से बचना, समाज के कमजोर व्यकियों के उत्थान हेतु सहयोग की ततपरता, गरीब किन्तु योग्य विद्यार्थियों की शिक्षा पर ध्यान, ऐसे कई सामाजिक मुद्दे हैं जिन पर ध्यान देने व सकारात्मक कदम उठाने से निश्चय ही समाज निसन्देह तरक्की करेगा।

प्रश्न : आप विश्व ब्राह्मण महासभा की गतिविधियों में भी सक्रिय रही हैं। भारतीय धर्म संस्कृति अध्यात्म की विरासत को सँजोने में ब्राह्मण समुदाय की भूमिका को रेखांकित करें?

उत्तर : जी यदि ब्राह्मण सचमुच केवल जन्म से ब्राह्मण न होकर कर्म से ब्राह्मण है। तब तो उसका कर्म ही समस्त समाज को शिक्षित करना व सही दिशा देना है।धर्म व संस्कार प्रदान कर अध्यात्म से पूरे विश्व को जोड़ना ही उसका पहला धर्म है। महज उपदेश से नही बल्कि अपने कार्यो के द्वारा ही यह संभव है। जिसके प्रमाण से हमारा इतिहास भरा पड़ा है। भारतीय धर्म संस्कृति अध्यात्म की विरासत का प्रत्यक्ष उदाहरण हमारे आदि गुरु शंकराचार्य जी है जिन्होंने चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की व ईश्वर के स्वरूपों विभिन्न दर्शनों से लोगों को अवगत कराया।
दूसरी ओर पवित्र धार्मिक ग्रन्थों के जैसे भागवत, रामायण, शिव पुराण आदि ग्रन्थों के सुमुधर वाचन द्वारा भी
ब्राह्मण लोगों में अध्यात्म के प्रति लगन उत्पन्न करने का कार्य तो करते ही हैं। प्राचीन काल मे तो ये शिक्षा के साथ साथ अन्य कलाओं का ज्ञान भी अपने शिष्यों को दिया करते थे। आध्यात्मिक ग्रन्थों के लेखन, अनुवाद इत्यादि द्वारा भी ये इस विरासत को संजोने में अपनी भूमिका निभाते रहे हैं और रहेंगे।

प्रश्न : आपने कहानी लेखन भी किया है। अपने कहानी लेखन के परिवेश, पात्र, विषयवस्तु के बारे में आपको क्या प्रतीत होता है? आज फेसबुक और व्हाटस अप ग्रुप्स में कहानी की अपेक्षा कविता से जुड़ी गतिविधियाँ क्यों ज्यादा पसंद की जा रही हैं?

उत्तर : कहानी लेखन मैने कम ही किया है, क्योंकि मेरा यही मानना है कि भावों को प्रगट करने हेतु सागर में गागर भरने का जो कार्य कविता कर सकती है कम शब्दों व कम समय मे वह कहानी के लिए आसान नहीं। आज वैसे भी मशीनीकरण के व्यस्त युग मे चाहकर भी लंबी कहानियां या उपन्यास एक ही बार में पढ़ पाना पुस्तक प्रेमियों के लिए संभव ही नही। इसीलिए किस्तों में लिखी गयी कहानियों का प्रचलन बढ़ रहा है। उसके पात्र भी आधुनिक वातावरण से
अछूते नहीं हैं। समाज की समस्याओं के साथ पति पत्नी के बदलते रिश्तों कार्यालय में कार्यरत लोगों की किसी भी कीमत पर आगे बढ़ने की लालसा, भ्रष्टाचार, अपराध में लिप्त पात्र इन सभी के दर्शन व इनसे संबंधित विषय वस्तु की झलक भी इनमें मिल जाती है। जहाँ तक कविता पसन्द करने का सवाल है, वही कम समय की भावाभिव्यक्ति, लयात्मक प्रवाह, मंचीय कवियों के प्रति आकर्षण, विज्ञापनों में अधिक से अधिक पद्य का प्रयोग व साहित्यिक की विभिन्न पद्यात्मक विधाओं जैसे दोहा, चौपाई, गजल व अन्य छंदों का आकर्षण। ऐसे कई कारण हैं जिन्होंने आज फेसबुक व व्हाट्सप पर कविता को लोक प्रियता दिलाई है।

प्रश्न : अपने कविता संग्रहों के बारे में बताइए?

उत्तर : मेरे साझा संग्रह लगभग 30 से ऊपर हैं। नवमान पब्लिकेशन : मेरा भी मत, रंग दे बसंती, मातृभूमि के वीर पुरोधा व अन्य। (दो में सहसंपादक) निखिल पब्लिकेशन : मेरी भी कविता, व अन्य, सूर्योदय साझा काव्य संग्रह, मेरी धरती मेरा गाँव, साहित्य पब्लिकेशन : मेरी अनुभूति (संपादक के रूप में सहयोग) वर्तमान अंकुर प्रकाशन : से कई साझा संग्रह, एकल संग्रह में दो भजन नवदुर्गा रस, राम रस, मेरी अनुभतियाँ अंकुर प्रकाशन व अर्णव प्रकाशन : काव्य रश्मियाँ इत्यादि।

प्रश्न : आजकल क्या लिख रही हैं?

उत्तर : मेरा ध्यान आजकल साहित्यिक छंदोबद्ध विधाओं दोहे, चौपाई, विभिन्न छंद व गजलों की ओर ज्यादा है। सम-सामयिक लेखों में भी रुचि है।

प्रश्न : आज के युवा पीढ़ी की बदलती जीवन शैली के बरक्स पश्चिमी संस्कृति के नये प्रभावों का आकलन किस रूप में करना पसंद करेंगी?

उत्तर : निश्चित रूप से डिजिटल युग ने वसुधैव कुटुम्बकम के नारे को साकार करने में अपनी महत्व पूर्ण भूमिका निभा रहा है। आज की युवा पीढ़ी पाश्चत्य बोली, भाषा, खान-पान व सबसे ज्यादा पहनावे में पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित नजर आ रही है। क्लबों आदि का बढ़ता चलन, माल में कई प्रकार के बार। विदेशों में जाकर जीविकोपार्जन के साधन ढूंढने के प्रयास। कुल मिलाकर युवा पीढ़ी की बदलती जीवन शैली ने हमारे नैतिक, आर्थिक, सामाजिक सभी मूल्यों पर असर डाला है।

प्रश्न : अपनी पढ़ी किताबों में किस किताब ने आपके मनप्राण पर अमिट प्रभाव डाला? आज के साहित्यिक परिवेश की सबसे बड़ी चुनौती क्या है?

उत्तर: यूँ तो ऐतिहासिक वीर किरदारों के त्याग, तपस्या ने सदा मुझ पर अमिट छाप छोड़ी है, किंतु उपन्यास सम्राट मुंशीप्रेम चंद की कहानी बड़े घर की बेटी की नायिका ने गहरा असर छोड़ा था क्योंकि तब मैने भी गृहस्थ जीवन में ही प्रवेश ही किया था और पारिवारिक वातावरण में सामंजस्य की सकारात्मक सोच का एक सुंदर उदाहरण उस कहानी में देखने को मिला। आज के साहित्यिक परिवेश की सबसे बड़ी चुनौती मेरे हिसाब से डिजिटल युग मे जल्दी-जल्दी बदलने वाले क्षेत्रीय मूल्य हैं, साहित्य का व्यवसायीकरण होता जा रहा है। लोगों की सोच भी, जो बिकता है वही लिखा जाये। कमोबेश यही स्थिति मंचों पर सुनाई जाने वाली रचनाओं की है, लेखन व श्रोता दोनों ही कहीं न कहीं दिग्भ्रमित भी हैं।

प्रश्न : हिमालय और गंगा ये हमें क्या प्रेरणा और संदेश देते हैं?

उत्तर : हिमालय व गंगा दोनों ही नाम एक पवित्र आध्यात्मिक अनुभूति का अहसाह दिलाते हैं। हिमालय का प्राकृतिक सौंदर्य, भारत की सुरक्षा, शिव की उपस्थिति का रोमांच,देने के साथ हर परिस्थिति में डटे रहना और लोगों को विभिन्न चुनौतियों को पार करने की प्रेरणा भी देता है। गंगा का नाम लेते ही एक निर्मल अनुभूति पापमोक्षनी देवी की तस्वीर
मन मे उभरती है, जो लाखों खेतों की सिचाईं के साथ पेट भरने के उपकार के साथ,परोपकार की प्रेरणा प्रदान करती है। साथ ही यह संदेश भी देती है कि किस तरह लोग उसे मैला कर उसका अपमान करें किंतु वह सबसे समान व्यवहार करती है, भेदभाव नहीं।

प्रश्न : डीजिटल युग की कौन सी बातें आपको सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं?

उत्तर : डिजिटल युग के प्रभावों में सकारात्मक व नकारात्मक दोनों ही रूप छुपे हुए हैं, जहाँ तक बात सकारात्मक दृष्टिकोण की है पूरे लॉकडाउन जैसी विपत्ति काल मे भी समस्त विश्व एक दूसरे से दुख-सुख में एक साथ ही जुड़ा रहा, दूर -दूर रहने वाले अपनो की खबर भी पल-पल में मिल रही थी। इधर विभिन्न संस्थाएं विभिन्न क्षेत्रों में बेबीनार आदि के माध्यम से अपने कार्यों में संलग्न थीं। कवि गोष्ठियों का आयोजन ऑन लाइन पाठशाला की कक्षाएं, सरकारी प्रोजेक्ट का, ट्रेन का इसी विधि से उद्घाटन आदि। इसी तरह नकारात्मक प्रचार भी शीघ्रातिशीघ्र हो जाते हैं, जिनका पूरे विश्व पर प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न : छत्तीसगढ़ के साहित्यिक परिवेश के बारे में बताएँ?

उत्तर : छत्तीसगढ़ में साहित्य या यों कहें काव्य प्रेमियों की कमी कभी नहीं रही। नीरज, बाल कवि बैरागी से लेकर अशोक चक्रधर, मधुप पांडेय व अन्य को यहाँ सादर आमंत्रित किया जाता रहा है। छत्तीसगढ़ के प्रमुख सहित्यकारों जिन्होंने अपनो रचनाओं से सहित्य को समृद्ध करने में अपना योगदान दिया। माधव राव सप्रे, बलदेव प्रसाद मिश्र, केदारनाथ ठाकुर, पदुमलाल पुन्ना, लाल बक्शी आदि हैं। वर्तमान समय मे छत्तीस गढ़ के पद्मश्री सुरेंद्र दुबे जी ने अपनी हास्य रचनाओं से सभी को खूब हँसाया है। व्हाट्सएप व फेसबुक पर भी आज कई साहित्यिक संस्थाएं निरन्तर हिंदी की सेवा में तत्पर हैं। छत्तीसगढ़ी भाषा मे भी सृजन हो रहा है। निरुपमा शर्मा, सुंदरलाल शर्मा, गोपाल मिश्र, लोचन प्रसाद पांडेय, श्री विनोद कुमार शुक्ल, डॉ. पालेश्वर शर्मा आदि यहाँ के प्रमुख साहित्यकार हैं।

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