जलनखोरी, ईर्ष्या सबसे विकृत मानवीय विकार

दूसरों के साथ जलनखोरी या इर्ष्या रखने वाले जीवन में कभी सफलता प्राप्त नहीं करते
ईर्ष्या में मुख्य रूप से एक अपूर्णता का भाव छिपा होता है – हम दूसरों से तुलनात्मक भाव छोड़कर खुद में मस्त रहें तो ईर्ष्या नहीं होगी – एडवोकेट किशन भावनानी

किशन सनमुखदास भावनानी, गोंदिया, महाराष्ट्र। सृष्टि रचनाकर्ता ने खूबसूरत मानवीय योनि को इस धरा पर रचना कर अभूतपूर्व बौद्धिक क्षमता से नवाजा, ताकि 84 लाख़ योनियों से हटकर अपनी बुद्धि कौशलता का पूरी क्षमता से उपयोग कर, सृष्टि के सभी जीवो के कल्याण के लिए कार्य करेगा। परंतु जिस प्रकार का हम मानवीय व्यवहार देख रहे हैं यह जीव अपने ही उलझनों में उलझ गया है और रचनाकर्ता की करणी में ही हाथ डालने की कोशिश कर रहा है कि, सृष्टि की रचना कैसे हुई? मानवीय देह से ऐसा क्या निकल जाता है कि मृत्यु हो जाती है? जैसे अनेक सवालों के साथ ही अनेकों दुर्गुणों से घिर गया है। उसमें से एक दुर्गुण जलनखोरी या ईर्ष्या का भाव रखना भी है। आज हर मानवीय जीव, हर तरह की सुख सुविधाएं, भोग चाहता है, याने जिस तरह सामने वाले में संपूर्णता है वैसी ही भी वह खुद चाहता है और ना होने पर जलनखोरी ईर्ष्या का भाव पैदा होता है जो मनुष्य की असफलता और बर्बादी के अंजाम तक पहुंचा देता है इसलिए आज हम इस आलेख के माध्यम से चर्चा करेंगे कि दूसरों के साथ जलनखोरी, ईर्ष्या करने वाले मनुष्य जीवन में कभी सफल नहीं होते।

एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी : संकलनकर्ता, लेखक, कवि, स्तंभकार, चिंतक, कानून लेखक, कर विशेषज्ञ

साथियों बात अगर हम ईर्ष्या या जलनखोरी की करें तो ऐसा करने वालों को हम जलकुकड़ा भी कहते हैं। ईर्ष्‍या एक भाव है जो किसी के पास कुछ ऐसी चीज होने की वजह से आ सकती है, जो हम पाना चाहते थे या अगर किसी के पास कोई चीज हमसे ज्यादा है। अगर हम में किसी तरह की अपूर्णता है, जिसकी वजह से दूसरों के सामने हम अच्छा महसूस नहीं कर पाते हों, तो इससे भी कई बार ईर्ष्‍या पैदा हो जाती है। ईर्ष्‍या में मुख्‍य रूप से एक अपूर्णता का भाव छिपा होता है। यदि हम आनंद के भाव से पूरी तरह भरे हों, तो हमारे भीतर किसी के भी प्रति ईर्ष्‍या का भाव नहीं होगा। जैसे ही हमको ये लगता है कि हमारे बगल में बैठे आदमी के पास हमसे कुछ ज्यादा है और हम उससे खुद को कम महसूस करने लगते हैं तो ईर्ष्‍या का भाव पैदा होता है। अगर यहां हमसे बेहतर कोई दूसरा व्यक्ति मौजूद है तो ईर्ष्‍या पैदा हो सकती है। यदि हम खुद में मस्त हैं तो ईर्ष्‍या का कोई प्रश्न ही नहीं है।

साथियों हमारे अंदर जो जलन और ईर्ष्या होती है तो उसके पीछे कोई न कोई वजह जरूर होती है और इस वजह को समझने के लिए जरूरी है कुछ देर खुद अपने साथ बैठना और अपने आप से इस बारे में पूछना। उससे भी ज़्यादा जरूरी है खुद को पहचानना। जरूरी नहीं है कि हमको अपनी इस भावना के बारे में पता लगे। इसको महसूस करना बहुत जरूरी है। जब तक हम इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करेंगे, आगे नहीं बढ़ पाएंगे। इसलिए जरूरी है सच्चाई को स्वीकार करके आगे बढ़ें। ईर्ष्या की ये भावना सिर्फ प्रतियोगी के साथ ही नहीं, बल्कि किसी भी रिश्ते में आ सकती है। जैसे हमारे भाई-बहन, दोस्त, रिश्तेदार, आपके साझेदार, अभिभावक और यहां तक कि हमारे अपने बच्चे भी हो सकते हैं। इस भावना के चलते हम कई बार सामने वाले को इतना दुखी कर देते हैं जो उनके लिए बहुत तकलीफदेह होता है और मजेदार बात यह कि इसका हमें पता ही नहीं चलता।

साथियों जलनखोरी एक सोच या भाव है, जो आमतौर पर भय, चिंता असुरक्षा और ईर्ष्या के विचारों या भावनाओं से जुड़ा होता है। जिनके पास संपत्ति, पद या सम्मान आदि की कमी होती है, उनमें इस तरह की भावनाएँ या सोच जन्म लेने लगती है। ये विशेष रूप से किसी दुश्मन या प्रतिभागी हेतु होती है। इस तरह की भावनाएं या सोच सामान्यतः एक या एक से अधिक भावों से मिल कर बने होते हैं, जिसमें क्रोध, घृणा आदि भावनाओं का मिश्रण होता है। जलन का वास्तविक अर्थ ईर्ष्या से भिन्न है, लेकिन आमतौर पर इन दोनों शब्दों को एक ही समझा जाता है।

साथियों बात अगर हम जलनखोरी ईर्ष्या के परिणामों की करें तो इसमें शत्रु भाव पैदा होता है हम अपने दोस्तों पड़ोसियों साथियों की सफलता उनके बच्चों की गुणवत्ता से मन में भाव उत्पन्न होता है कि हमारे साथ ऊपर वाले ने ऐसा क्यों नहीं किया? यहां से शुरू होती है हमारी दुर्गति, बर्बादी की कथा जो हम हर तरह के दुर्गुणों से घिरते चले जाते हैं और हमें पता तब चलता है जब हम अपना सब कुछ पाया हुआ भी खो देते हैं। इसलिए हमें चाहिए कि अपनी मौज में मस्त रहें किसी की सफलताओं से हमें खुश होकर उन्हें बधाईयां देना चाहिए और खुद भी अपने लिए मेहनत करने का भाव लाना चाहिए कि हम भी ऐसी मेहनत कर आगे बढ़े। ईर्ष्या एक ऐसा शब्द है जो मानव के खुद के जीवन को तो तहस-नहस करता है औरों के जीवन में भी खलबली मचाता है। यदि हम किसी को सुख या खुशी नहीं दे सकते तो कम से कम दूसरों के सुख और खुशी देखकर जलें नहीं। यदि हमको खुश नहीं होना है, न सही मत होइए खुश, किन्तु किसी की खुशियों को देखकर हम अपने आपको ईर्ष्या की आग में ना जलाएं। परंतु अफ़सोस की बात है आज के समाज की, कि लोग किसी के दुःख को देखकर तो बहुत दुखी होते हैं सहानुभूति जताते हैं लेकिन किसी की खुशी को देखकर खुश नहीं होते। किसी की उन्नति से किसी के गुणों से जलते हैं और दुखी होते हैं और पुरा प्रयास करते हैं कि सामने वाले का बुरा हो। हम सभी को इससे बचना चाहिए।

साथियों बात अगर हम जलनखोरी या ईर्ष्या को समझने की करें तो, ईर्ष्या हमारा स्वभाव नहीं है। किसी चीज को छोड़ने से आजादी नहीं मिलेगी, क्योंकि छोड़ने के लिए है ही क्या? इस समय, हमारे भीतर कोई ईर्ष्या नहीं है।यह हमारे स्वभाव का अंग नहीं है। हम इसे समय-समय पर पैदा करते हैं। अगर हम अपने अंदर इसे इसलिए पैदा किया होता कि हम ऐसा करना चाहते थे, तो यह हमारे लिए आनंददायक होता। अगर हमको गुस्से, जलन और नफरत से खुशी होती है तो उसे पैदा कीजिए। पर ऐसा नहीं है, वे हमारे लिए ख़ुशी देने वाले अनुभव नहीं हैं। तो हमने उन्हें क्यों रचा है? हमने उन्हें रचा है क्योंकि हमारे भीतर जरुरी जागरूकता की कमी है। हमको नहीं लगता कि हमें हमारी इर्ष्या जलाती है? बाद में सामने वाले का नुकसान होता है? क्यूंकि इर्ष्या करते वक़्त हमारे दिमाग के स्नायु सिकुड़ते हैं जिसका प्रभाव हमारे अंतर्मन पर पड़ता है और इसका प्रभाव हमारी दिनचर्या पर पड़ता है। हम चिड़चिड़े हो जाते हैं और घर के लोगों के साथ हमारा व्यवहार गलत ढंग का हो जाता है तब घर का वातावरण कलहपूर्ण हो जाता है और हमारा स्वाभाव झगड़ालू हो जाता है। हम जानते ही हैं कि झगड़ालू लोग किसी को अच्छे नहीं लगते।

साथियों इस ईर्ष्या के जो मूलभूत कारण हैं, उसमें सबसे पहला कारण है अहमन्यता- अपने आप को बड़ा मानने की प्रवृत्ति; दूसरा कारण है असहिष्णुता- दूसरों की बातों को न सह पाने की स्थिति; तीसरी बात है अनुदारता- हमारा मन उदार न रहे, किसी के प्रति उदारता का न होना, संकीर्ण होना; और चौथी बात है ओछी मानसिकता। कैसे ईर्ष्या से छुटकारा पाएँ इसके उपाय हैं, ईर्ष्या को समझना, ईर्ष्या को सकारात्मकता में बदलना। तुलना से बचिए कृतज्ञता महसूस करना, दृष्टिकोण को फिर से बैठाना। जब-जब हमारे मन में किसी के लिए ईर्ष्या का भाव जागृत हो तब-तब अपने विचारों की दिशा को सकारात्मक सोच की और मोड़ दीजिए जब विचारों की दिशा ही बदल जाएगी तब अपने आप नकारात्मकता हमसे दूर होते जाएगी और जब मन में अच्छी बातें आती है तब हमें वो बातें सुकून ही देती है न की ग्लानि या जलन।

अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर उसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि, जलकुक्ड़ा- दूसरों के साथ जलन और ईर्ष्या रखने वाले जीवन में कभी सफलता प्राप्त नहीं करते। ईर्ष्या में मुख्य रूप से एक अपूर्णता का भाव छिपा होता है- हम दूसरों से तुलनात्मक भाव छोड़कर ख़ुद में मस्त रहें तो ईर्ष्या नहीं होगी।

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