फर्क
ध्रुवदेव मिश्र पाषाण
तुम काफी पढ़े लिखे हो।
प्रकाशन-तंत्र में गहरी पैठ वाले हो।
धुरंधर आलोचकों और संपादकों के गहरे रिश्ते हैं तुम्हारे साथ।
आंदोलन-मुखी बड़े-बड़े नेताओं के साथ खाने-पीने, मौज-मस्ती के मौके तलाशने में कोई दिक्कत नहीं है तुम्हें।
और मेरे जैसे कम-पढ़ेलिखे मूढ़मति ऊपर के तमाम दाव-पेंचों है से अलग
प्रकृति और प्राणी जगत के कल्याण मे अपने को दुबला करने में लगे हैं
जैसे दुनिया का ठेका ले लिया हो!
बहरहाल एक फर्क तो है कबीर, नागार्जुन और मुक्तिबोध से कुछ सीखने को आतुर हम जैसों और तुम में!
“तुम कहते कागज की लेखी मैं कहता आंखिन की देखी” -कबीर
“वे लोहा पीट रहे हैं -तुम मन को पीट रहे हो।” -नागार्जुन
“जो तुम्हारे लिए विष है वह मेरे लिए अन्न है” -मुक्तिबोध
याददाश्त की गड़बड़ी से उद्वरणों के शब्दों की गड़बड़ी और अपनी हड़बड़ी के लिए हाथ जोड़ कर क्षमा मांगता हूं भाई! धन्य हो तुम-धिक है मुझ मूढ़मति को –२१/१२/२०