श्रीराम पुकार शर्मा : कुछ गीत ऐसे भी होते हैं, जिनके बोल कानों में अमृत रस प्रवाहित करने के साथ ही साथ मन में राष्ट्रभक्ति की हिलोरे उद्वेलित करने लगते हैं, रोम-रोम में उत्फुलता की सिहरन पैदा होने लगती है। ऐसे ही एक चर्चित गीत है, – ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा’।
राष्ट्रीय ध्वज के प्रति सम्मान की अभिव्यक्ति के लिए इस अमर गीत को लिख कर अमरत्व को प्राप्त करने वाले देशप्रेमी, स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार, समाज सेवी व अध्यापक आदि विशिष्ठताओं से समन्वित महान व्यक्तित्व ‘श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ को उनकी गौरवमयी 125 वीं जयंती पर सादर हार्दिक नमन।
तिरंगा गीत की भाँति ही सदैव भारतीय मन में चिर स्थापित श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ का जन्म उत्तर प्रदेश में कानपुर जिले के नरवल ग्राम में 9 सितम्बर 1896 को मध्यवर्गीय वैश्य परिवार में हुआ था। बाल्यवस्था से ही इनमें काव्य प्रतिभा समाहित थी। जिसका उत्कृष्ट उदहारण मात्र पाँच वर्ष की अवस्था में इन्होने इस छंद-रचना के माध्यम से उद्घाटित किया था :-
‘परोपकारी पुरुष मुहिम में, पावन पद पाते देखे,
उनके सुन्दर नाम स्वर्ण से सदा लिखे जाते देखे।’
श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ जी हिन्दी साहित्य सम्मेलन से ‘विशारद’ की उपाधि को प्राप्ति कर 15 वर्ष की अवस्था में ही हरिगीतिका, सवैया, घनाक्षरी आदि छन्दों में रामकथा के बालकण्ड की रचना कर दी थी। पर दुर्भाग्य, उनकी उस रचना को उनके पिताजी ने कुएं में फेंकवा दी, क्योंकि उनका मानना था कि कवि-कर्म अपने साथ दरिद्रता को भी लाती है। उनका विचार भी कोई निराधार नहीं था। तत्कालीन और पूर्व के अधिकांश कवियों का जीवन निर्धनता में ही व्यतीत हुए हैं। वैश्य वंश और धन-संपदा से दूर, कुछ अजीब-सी ही बात थी।
बाद में श्यामलाल लाल गुप्त ‘पार्षद’ जी ने जिला परिषद के एक विद्यालय में फिर म्युनिसिपल के स्कूल में अध्यापक की नौकरी की। परन्तु थे बड़े ही स्वाभिमानी स्वभाव के। उनका स्वाभिमानी स्वभाव नौकरी के मार्ग में अड़चन पैदा करने लगा। यही समय है जब वे राष्ट्रवादी साहित्यकार व पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी और प्रताप नारायण मिश्र जैसे विशिष्ठ व्यक्तित्व की देशभक्ति और काव्य-प्रतिभा दोनों से ही अतिशय प्रभावित हुए थे और अध्यापन, पुस्तकालयाध्यक्ष और पत्रकारिता आदि के विविध जनसेवा कार्य में अपना सहयोग देने लगे थे।
श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ जी 1916 से 1947 तक पूर्णत: समर्पित एक कर्मठ स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी रहे हैं। वे अपनी लगन और निष्ठां के बल पर सन् 1920 में फतेहपुर जिला काँग्रेस के अध्यक्ष बने तथा जिला परिषद कानपुर में 13 वर्षों तक रहे। इस दौरान वे महात्मा गाँधी के प्रबल सिपाही बने ‘नमक आन्दोलन’ तथा ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का प्रमुख संचालन के दायित्वों का भी बखूबी से निर्वाह भी किया। इस कार्य में वे आठ बार में कुल छ: वर्षों तक विभिन्न जेलों में राजनैतिक बन्दी रहे।
ऐसे ही समय वे देश के राष्ट्रीय स्तर के नेताओं – मोतीलाल नेहरू, महादेव देसाई, रामनरेश त्रिपाठी और अन्य नेताओं के संपर्क में आये। लेकिन स्वतन्त्रता संग्राम के साथ-साथ ही उनका कविता रचना कर्म भी सामान्य गति से निरंतर अग्रसर होता ही रहा। वे एक दृढ़ संकल्प वाले राष्ट्र-भक्त व्यक्ति थे।
उनकी कथनी और करनी के बीच कोई अंतर का कोई सवाल ही न पैदा होता था। उन्होंने 1921 में स्वराज्य प्राप्ति तक नंगे पाँव रहने का महाव्रत ग्रहण किया और उसे पूर्णतः निभाया भी। सन 1923 में फतेहपुर जिला काँग्रेस का अधिवेशन हुआ। काँग्रेस ने उस समय तक झंडा तो ‘तिरंगा झंडा’ को तय कर लिया था, पर जन-मन को प्रेरित कर सकनेवाला कोई झंडागीत अभी तक नहीं था। श्री गणेश शंकर विद्यार्थी, श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ जी की देशभक्ति और काव्य-प्रतिभा दोनों से ही अति प्रभावित थे। अतः उन्होंने श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ से एक ‘झंडा-गीत’ लिख कर अगले दिन लाने का आग्रह किया।
पर गीत या काव्य-रचना तो मन की आकस्मात व्यक्त भावना होती है, उसे तो जब चाहा, तब लिख दिया, संभव ही नहीं। श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ जी परेशान, समय सीमा में कैसे लिखा जाए? काग़़ज-कलम लेकर लिखने तो बैठ गये, पर भाव उत्पन्न हो, तब न कुछ बात बने। कई शब्दों सहित कई काग़़ज फटते गए। काफी रात गए एक गीत तैयार हो गया, – ‘राष्ट्र गगन की दिव्य ज्योति राष्ट्रीय पताका नमो नमो।’
रचना तो बन गई थी। बहुत अच्छी भी थी। पर उनके मन में न उतर रही थी। क्या करते? थककर वह लेट गए। पर व्यग्रता और जिम्मेवारी उनकी आँखों से नींद को दूर की हुई थी। अनिच्छा से करवटें बदलते रहे। रात दो बजे का समय हुआ होगा, अचानक उनके मस्तिष्क में एक गीत के मनचाहा कुछ बोल उमड़ने लगे। झट उठ बैठे, एक ग्लास पानी पीया और उन बोलों को कागज पर उतारने लगे।
प्रतीत हुआ कलम कोई अदृश्य शक्ति से संचालित होकर स्वतः ही चल रही है, उनका हाथ तो बस उसे सहारा मात्र ही दिया हुआ है। भारत माता स्वतः ही गीत के एक-एक बोल को लिख रही है। और तिरंगा ध्वज की वन्दना गीत ब्रह्म मुहूर्त में पूर्ण हो गई। श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ जी को इस बार पूर्ण संतुष्टि प्राप्त हुई और फिर निश्चिन्त की मीठी नींद में सो गए। पर सपने में भी ‘झंडागीत’ के शब्द पुनरावृत हो ही रहे थे –
‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा।
सदा शक्ति सरसानेवाला वीरों को हर्षानेवाला।‘
अगले दिन ही श्यामलाल ‘पार्षदजी’ ने दोनों गीत गणेशशंकर विद्यार्थी जी की सेवा सुपुर्द किया। गणेशशंकर विद्यार्थी, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन आदि शीर्ष नेताओं को दोनों ही गीत बहुत अच्छे लगे। पर प्रसंग और भावानुसार ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा’ गीत को सभी ने ज्यादा पसंद किया गया। बाद में महात्मा गांधी के परामर्श पर उसमें कुछ शब्दों को संशोधित करके इसे ‘झंडागीत’ के रूप में मान्यता प्रदान कर दी गई।
जो बाद में न केवल झंडा राष्ट्रीय गीत घोषित हुआ, बल्कि अनेकों नौजवानों और नवयुवतियों के लिए देश पर मर मिटने हेतु प्रेरणा का स्रोत भी बना। हरिपुरा के ऐतिहासिक काँग्रेस अधिवेशन के अवसर पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस सहित लगभग पाँच हज़ार लोग अपने तिरंगे के सम्मान में श्रद्धा-भाव से खड़े होकर ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा’ समवेत स्वर में गा उठे। इस अधिवेशन में देश के प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण नेतागण उपस्थित थे। इसके पश्चात तो देश की गली-गली, कोने-कोने में प्रभात फेरियों में, जन-जन के कंठों से यह प्यारा गीत गूँजने लगा।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ द्वारा रचित इस ‘झंडा-गीत’ ने जनमानस में चेतना जागृत करने का बड़ा काम किया है। इस गीत को गाते हुए लाखों स्वतंत्रता संग्रामियों ने लाठी और गोलियाँ खाई, पर अपने तिरंगे को अपमानित न होने दिया। यह गीत अंग्रेजी सरकार की आंखों की किरकिरी बना रहा। स्वतन्त्र भारत ने 1952 में लालकिले से अपने इस प्रसिद्ध ‘झण्डा गीत’ गाया। 1972 में लाल किले में श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ का राष्ट्र की ओर से अभिनंदन किया गया उन्हें 1973 में उन्हें ‘पद्मश्री’ से अलंकृत किया गया।
रामचरित मानस उनका प्रिय ग्रन्थ था। वे श्रेष्ठ ‘मानस मर्मज्ञ’ तथा प्रख्यात रामायणी भी थे। रामायण पर उनके प्रवचन की प्रसिद्ध दूर-दूर तक थी। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद को उन्होंने सम्पूर्ण रामकथा राष्ट्रपति भवन में सुनाई थी। नरवल, कानपुर और फतेहपुर में उन्होंने नियमित रामलीला आयोजित की।
श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ जी की राजनीति का लक्ष्य जन-सेवा था। अतः वे सामाजिक कार्यों में भी सदैव अग्रणी ही रहे। उन्होंने दोसर वैश्य इण्टर कालेज (वर्तमान में गौरीदीन गंगाशंकर विद्यालय) एवं अनाथालय, बालिका विद्यालय, गणेश सेवाश्रम, गणेश विद्यापीठ, दोसर वैश्य महासभा, वैश्य पत्र समिति आदि की स्थापना एवं सफलता के साथ उनका संचालन भी किया। इसके अलावा स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन देते हुए दहेज-प्रथा का भरपूर विरोध किया और विधवा विवाह को सामाजिक मान्यता दिलाने में अपना सक्रिय योगदान किया।
श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ जी इतने स्वाभिमानी थे कि जीवन भर अभावों में रहने के बावजूद कभी किसी से ‘माँगा नहीं मुँह खोल’ के कारण ही वह अपना इलाज नहीं करा सके और 81 वर्ष की अवस्था में अपने देशवासियों के करोड़ों कंठों से ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा’ गीत को सुनते हुए 10 अगस्त, 1977 की रात्रि में महाप्रयाण कर गए।
फिर जैसा की होता आया है, उनकी मृत्यु के बाद कानपुर और नरवल में उनके अनेकों स्मारक बने। नरवल में उनके द्वारा स्थापित बालिका विद्यालय का नाम ‘पद्मश्री श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ राजकीय बालिका इंटर कालेज किया गया। फूलबाग, कानपुर में ‘पद्मश्री’ श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ पुस्तकालय की स्थापना हुई। 10 अगस्त 1994 को फूलबाग में उनकी आदमकद प्रतिमा स्थापित की गई। झंडागीत के रचयिता, ऐसे राष्ट्रकवि को पाकर देश की जनता धन्य है।
श्यामलाल ‘पार्षद’ जी के प्रति अपने उद्गार व्यक्त करते हुए एक बार नेहरू जी ने कहा था- ‘भले ही लोग पार्षदजी को नहीं जानते होंगे परंतु समूचा देश राष्ट्रीय ध्वज पर लिखे उनके गीत से परिचित है।’