दोपहर
तुमने साहस से खुद को आज पुकारा,
हम कहाँ मिलेंगे शायद घर के बाहर।
हवा पेड़ से लिपट गयी जब दुपहरी के शांत पहर में,
उस पेड़ की छाया ठंडी है।
उसी बाग में खूब झमाझम जब भी बारिश होती,
हरी घास पर सुबह चमकते मोती।
इसी प्रेम को रोज तुम्हारी आँखों में किसने देखा,
कठिन ग्रीष्म में किसने सारा संकोच मिटाया।
जीवन की इस छोटी नैया को,
फूलों से सुबह पहर में किसने आज सजाया।
विप्लव की राहों में विजय दुंदुभि दैवयोग से,
उसी काल ने आकर आज बजाया।
यह प्रेम की नगरी खूब पुरानी है,
किस नदिया का यह मीठा पानी है।